शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

शिक्षा का बदलता स्वरूप

बिना गुरु के ज्ञान असम्भव...
वर्तमान समय में लोग कहते हैं कि गुरु व शिष्य के बीच सेवा भाव का लोप हो गया है। लेकिन ऐसा नहीं है। गुरु अपने शिष्य को विद्यालय से अलग बुलाकर विशेष तरीके से उसको शिक्षित करता है। शिष्य भी अपने कत्र्तव्य से पीछे नहीं हटता है। अपने गुरु व गुरुजी के घर के सारे कामों को बखूबी जिम्मेदारी से करता है। आधुनिक गुरु अर्थात अध्यापक लोग अपने शिष्यों यानी छात्रों के लिये विशेष शिक्षा केन्द्रजैसे कोचिंग सेण्टर व इंस्टीट्यूट जैसे कुटीर व लघु शिक्षा केन्द्रों (उद्योग धन्धों) का शुभारम्भ किया बल्कि उसे पूर्ण रूप से विकसित भी किया। इस प्रक्रिया को वह लोग निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ाते भी जा रहे हैं।
हमारे देश में कई वेद, शास्त्र व पुराण अनेक विद्वानों द्वारा लिखे गये। लेकिन इस कोचिंग व्यवस्था पर कोई ग्रन्थ या पुराण नहीं लिखा गया। शास्त्रों की बखिया उधेडऩे वाले उन विद्वानों के लिए यह डूब मरने की बात है जिन्होंने वेदों में प्रमुख ऋगुवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और शास्त्रों और पुराणों में अग्निपुराण, भागवतपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, गरुणपुराण, कर्मपुराण, लिंगपुराण, मारकाण्डेय पुराण, मतस्यपुराण, नारद पुराण, नरसिह्मापुराण, पदमपुराण, शिवपुराण, स्कन्द पुराण, वैवत्रपुराण, वामन पुराण, वारहपुराण, विष्णुपुराण। लेकिन कलयुग के इस आधुनिक युग के लिये एक बेहद जरूरी व महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखना भूल गये। जिसका नाम मेरे हिसाब से कोचिंग सेण्टर या फिर लघु व कुटीर उद्योग शिक्षा-शास्त्र/पुराण होना चाहिये।
हमारे आधुनिक अध्यापक इस ग्रन्थ की उपयोगिता व आवश्यकता को समझते हुये इसकी नींव रख दी है। वे छात्रों को कोचिंग पढऩे के लिये अपने नवीनतम तरीकों से मजबूर करते रहते हैं।
इसके कई तरीके हैं- कक्षा में देर से आना, कक्षा में पहुँचकर माथा पकड़कर बैठ जाना। एकाध सवाल समझाकर सारे कठिन सवाल गृह-कार्य के रूप में देना। यदि छात्र कक्षा में कुछ पूछे तो - 'कक्षा के बाद पूछ लेना' कह देना। कक्षा के बाद पूछे तो 'घर आओ तब ही ढंग से बताया जा सकता है।' दूसरी विधि-छमाही परीक्षा में चार-पाँच को छोड़ बाकी छात्रों को फेल कर देना। फिर देखिए सुबह-शाम छात्रों की भीड़ अध्यापकों के घर में दिखने लगती है।
अभिभावक लोग अध्यापक से न जाने क्यों जलते हैं? जो अपनी ही आग में जला जा रहा है उस बेचारे से क्या जलना? राम तो विष्णु के अवतार थे उन्हें भी गुरु के घर जाना पड़ा। यह कारण था कि अल्पकाल में ही उन्होंने सारी विद्याएँ प्राप्त कर लीं थीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इस बात की पुष्टि की है- गुरु गृह गए पढऩ रघुराई। अल्पकाल विद्या सब पाई। जब भगवान का यह हाल था तो भला आज के छात्र की क्या औकात कि वह अपने विषय के अध्यापक से विशेष प्रकार की शिक्षा ग्रहण (ट्यूशन न पढ़े) न करे।
कलयुगी अध्यापकों ने अपनी काबिलियत और ज्ञान को बेचना अपना पेशा बना लिया है। ये कोचिंग सेण्टर के नाम से अपनी दुकानें चलाते हैं। कुछ लोग यह काम बड़े स्तर पर करते हैं। इसके लिये वे इंस्टीट्यूट नामक बड़े उद्योग की शुरूआत करते हैं।
इस प्रकार जब उनकी दुकानें चल निकलती हैं तो दो शिफ्टों में सुबह और शाम को वास्तविक पढ़ाई शुरू हो जाती है। गुरु जी पढ़ाते समय विभिन्न दैनिक एवं पारिवारिक कार्यों को भी संपन्न करते रहते हैं, अच्छा भी है-एक पंथ दो काज।
कुछ लोग कहते हैं कि छात्रों के हृदय से सेवा-भावना का लोप हो रहा है। इन गैर सरकारी 'कुटीर एवं लघु शिक्षा केन्द्रों व इंस्टीट्यूट जैसे बड़ी उद्योग फर्मों का निरीक्षण करें तो उन्हें अपनी विचारधारा बदल देनी पड़ेगी। सुबह के समय एक छात्र डेरी से दूध ला रहा है। दूसरा छात्र अपने गुरु के पुत्र को उसके विद्यालय पहुँचा रहा है। तीसरा छात्र गुरु पत्नी की सेवा में जुटा हैं और सिल पर मसाला पीस रहा है, चौथा छात्र घर की रसोई में सहायता कर रहा है। चक्की से गेहूँ पिसवा कर लाना, सब्ज़ी मंडी से सब्ज़ी लाना, धोबी के यहाँ मैले कपड़े भिजवाना, गुरु जी के लिए दुकान से बीड़ी-पान खऱीद कर लाना इन सभी कार्यों को छात्र ही संपन्न करते हैं। उसके बावजूद भी कुछ बुद्धिजीवी लोग यही कहते हैं कि छात्रों के हृदय से अपने गुरु अर्थात अध्यापक के प्रति सेवा-भावना का लोप हो रहा है। यह तो सरासर नाइन्साफी है छात्रों के साथ।
यदि सेवा भावना से गुरु प्रसन्न है तब भगवान भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गुरु जी अगर नाराज है तो भगवान भी सहायता नहीं कर सकते। ज्ञान ध्यान स्नान के लिए एकांत होना आवश्यक है। कक्षा की भीड़-भाड़ में ज्ञान-चर्चा करना व्यर्थ है। आज हमारी सरकार शिक्षा-नीति के परिवर्तन पर बहुत ध्यान दे रही हैं। मेरी सलाह कोई माने तो 'हींग लगे न फिटकारी रंग चोखा चढ़े।' सब विद्यालय बंद करा दिए जाएं। भवन-निर्माण, फर्नीचर, वेतन सभी खर्च समाप्त। छात्रों के उज्जवल भविष्य व अच्छी पढ़ाई के लिये कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केंद्र चलाने के लिए धाकड़ अध्यापकों को प्रोत्साहित किया जाए। क्योंकि वर्तमान में जाने-अनजाने में हो तो यही रहा है। विद्यालय में छात्रों की संख्या भले ही कम हो लेकिन इन पढ़ाई के कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केंद्रों पर किसी विद्यालय के छात्रों की संख्या से यहां की संख्या कम नहीं होती। इस कारण अध्यापकों का भी कत्र्तव्य बनता है कि वह अपने प्रिय छात्रों का विशेष रूप से ध्यान रखें। आखिर वह बड़ी-बड़ी रकम ट्यूशन फीस के रूप में जो देते हैं। इसलिये अध्यापक अपने इस कत्र्तव्य पथ से जरा भी भ्रमित नहीं होते। अपना कार्य वे बखूबी निभाते हैं।
अपने प्रिय छात्र के लिए अध्यापक को कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते हैं। परीक्षा कक्ष में नकल की विशेष छूट देना, पेपर आउट करना, कापी में नंबर बढ़ाना या घर जाकर कापी में लिखवाना। लिखित परीक्षा में दस प्रतिशत नंबर लाने वाले छात्र को प्रयोगात्मक परीक्षा में नब्बे प्रतिशत अंक दिलवाना आदि बहुत-सी सेवाएँ सम्मिलित हो जाती हैं।
यदि कोई सनकी अध्यापक इनके धंधे-पानी में बाधा बनता है तो ये विषैले साँप बनकर उसे डसने का मौका ढूँढ़ते रहते हैं। मुँह का ज़ायका बदलने के लिए ये चुगली का भी सहारा लेते हैं। यदि अर्ध-वार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को बोर्ड की परीक्षा से वंचित करने का नियम दिया जाए। इससे ट्यूशन के कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन मिलेगा तथा धंधे की गिरती हुई प्रतिष्ठा को बल मिलेगा।
कानपुर कभी अनेक लघु एवं कुटीर उद्योग धन्धे व बड़े-बड़े कारखाने का केन्द्र माना जाता था। लेकिन समय के साथ वे सब तो बन्द हो गये लेकिन कानपुर वासियों ने उसकी अस्मिता को बचाये रखा। उन्होंने कोचिंग व ट्यूशन के बहाने से कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केन्द्रों का न कि शुभारम्भ किया बल्कि उसे पूर्ण रूप से विकसित भी किया। वर्तमान में कानपुर शिक्षा का केन्द्र माना जाने लगा है। कोचिंग सेण्टर व कुटीर एवं लघु उद्योग व इंस्टीट्यूट जैसी बहुत सी फर्में जो जगह-जगह हैं इस बात का प्रमाण हैं।

हमसे डरो, हम अखबार वाले हैं।

मेरा काम न हुआ तो, ....... छाप देंगे

हमको जानते हो... हम कौन हैं? जरा तमीज से बात करो हमसे वरना हम........छाप देंगे। क्या बात है। आज शहर हो या प्रदेश या फिर देश-दुनिया किसी भी स्थान पर देखने को मिल जाते हैं 'प्रेस' को अपने नाम के साथ जोडऩे वाले। प्रेस का मतलब इनके लिये किसी संस्थान में नौकरी करने वाला एक कर्मचारी नहीं बल्कि खुद प्रेस मालिक अर्थात अखबार वाला होता है। हर किसी से बोलने का लहेजा भी कुछ अलग होता है इनका। मेरा काम नहीं हुआ तो हम........छाप देंगे। सिर्फ इतना बोलने पर इन लोगों के बड़े से बड़े काम हो जाते हैं। ये लोग सिर्फ नाम से काम चलाते रहते हैं। अखबार तो कभी निकलता नहीं है लेकिन खबरें भी कोई छूटती नहीं है इनको पास सारे जहां की खबरें होती हैं और इन खबरों के छपने के चर्चे भी होते हैं। लेकिन किसी अखबार या पत्रिका में छपती नहीं हैं तो आखिर इन खबरों का होता क्या है, कब और कहां छापी जाती हैं।
जब भी अख़बार निकालने की बात चलती है तो अकबर इलाहाबादी जी का शेर याद आ जाता है 'गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।' 'प्रेस' वालों का अखबार सबसे पहले निकल जाता है, भले ही तोप तो क्या तमंचा भी मुकाबिले में न हो। आजकल हर कस्बे हर नगर में हजारों पत्रकार बिना लिखे और बिना अखबार निकाले ही बड़ी-बड़ी 'तोपों' को डराते फिर रहे हैं। ये 'तोपें' भी डर जाती हैं और इन 'प्रेस' अर्थात अखबार वालों को कुछ न छापने के लिये उनका खर्चा-पानी दे देते हैं और अखबार बिना छपे ही खप जाता है।
तोपें पूछती हैं- 'और मिश्रा जी अखबार कैसा चल रहा है?'
'कैसा क्या, चल ही नहीं रहा है बंद पड़ा है अभी फाइलिंग हो रही है' मिश्रा जी बताते हैं।
'क्यों?'
'अरे आप लोग अखबार को चलने ही कहां देते है। अभी तीन महीने पहले एक के.डी.ए. वाले श्रीवास्तव साहब के विभाग की एक स्टोरी छापी थी, कि दूसरे ही दिन बेचारे मेरे दफ्तर में मुंह के बल आकर पैरों पर गिर गये और मिठाई का डिब्बा मेरी तरफ बढ़ा दिया। वह उस मिठाई के डिब्बे में बीस हजार रुपये दे गए और कह गए कि 'मिश्रा जी काहे को कष्ट करते हो, अख़बार निकालने का। अखबार लिखोगे, छपवाओगे, बांटोगे, विज्ञापन बटोरोगे, कमीशन दोगे, पैसा वसूलोगे तब कहीं जाकर दो चार हजार पाओगे। भैया आपका ये छोटा भाई काहे के लिए अपने जूते घिस रहा है। जब छोटा भाई है तो बड़ा भाई क्यों चप्पलें चटकाए। हम हैं ना आपकी सेवा में। आप काहे अखबार निकालने का कष्ट करते हैं- सो तब से बंद पड़ा है। अब तो जब पैसे की दरकार होती है तो किसी 'तोप' के पास चला जाता हूँ और कहता हूँ कि सहयोग करो नहीं तो अखबार निकालना पड़ेगा। ये 'तोप' लोग बहुत ही भले लोग होते हैं, सहयोग की भावना इनमें कूट-कूट कर भरी होती है। अपने अकबर इलाहाबादी जी को लोग सही अर्थों में नहीं लेते, उन्होंने तो बहुत साफ-साफ कहा है कि- गर तोप मुकाबिल हो तो...अखबार निकालो। अब भाई साहब तोप मुकाबिले में ही नहीं आती है तो फिर बिना वजह क्यों अखबार निकालें।'
'तोप' मिश्रा जी के इस आख्यान पर विचार मग्न हो जाए इसके पहले ही वे पुन: निवेदन करते हैं 'भाई साहब एक कष्ट देने आया था। ये तिवारी जी हमारे रिश्तेदार बराबर है, आपके ही विभाग में मुलाजिम है कई वर्षों से देहात क्षेत्र में सड़ रहे हैं बिचारे। इनका तबादला यहीं शहर में ही करवा दें तो बड़ी कृपा होगी। आप जैसी दिव्य मूर्तियों के दर्शनों का सौभाग्य मिलता रहेगा नहीं तो फिर उसी साले अखबार में घुसना पड़ेगा और उसमें लिख कर उसे छापना पड़ेगा।'
'तोप' मिश्रा जी का काम कर देती है।
तिवारी जी भी मिश्रा जी का 'काम' कर देते हैं।
हम कभी भी अखबार निकाल सकते हैं, इसलिए हमसे डरो, नहीं तो अख़बार निकाल देंगे - ऐसा आदेश देते हुए हर नगर कस्बे में डायरी दबाये अनेक लम्बे कुर्ते वाले मिल जाएंगे जो केवल होली, दिवाली, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी को स्थानीय टुकड़ों की फूहड़ कविताओं और त्यौहारों की तरह मिलने वाले सरकारी विज्ञापन के साथ अखबार इसलिए छापते हैं कि वह लोग समाज की नजर में रहें ताकि वक्त जरूरत पर अपना काम निकाला जा सके। अगर वह लोग ऐसा नहीं करेंगे तो उनको और उनके अखबार को लोग भूल जायेंगे। समाज में अपनी पहचान बनाये रखने के लिये दैनिक अखबार को २ या ३ महीने में १ या २ बार किसी तरह से कुछ भी लिखकर उसे छपवा देते हैं। इन 'प्रेस' वालों अर्थात अखबारों वालों का अखबार छपता है तो इनका फायदा, नहीं छपता है तो इनका फायदा। तो अखबार छाप कर अपना बेवजह खर्चा क्यों बढ़ायें जब बिना अखबार छपे ही अपने सारे काम हो जाते हैं।
चूंकि किसी के मुंह पर तो लिखा नहीं रहता कि ये अखबार निकालते हैं सो वे अपनी मोटर बाइक और स्कूटरों पर 'प्रेस' लिखवा लेते हैं- बड़े-बड़े मोटे-मोटे अक्षरों में। इस 'प्रेस' का यह मतलब नहीं है कि हम अखबार वाले हैं अपितु इसका मतलब है कि हम अखबार निकाल सकते हैं। ट्रैफिक के कांस्टेबलों, वर्जित क्षेत्र में प्रवेश कराने वालों, स्कूटर चुराने वालों, चेन स्नैचरों अगर पढ़े-लिखे हो और पढ़ सकते हो तो पढ़ लो कि हम वह हैं जो कभी भी अखबार निकाल सकते हैं इसलिये हमारा भी ध्यान रखना। नहीं निकाल रहे हैं तो इसके लिये हमारा अहसान मानना चाहिये। यह लोकतंत्र का चौथा पाया है जो हमने उपर उठा रखा है अभी। अगर...टिका दिया तो लोकतंत्र चौपाया होकर जम जाएगा। अभी तीन हिस्सों में है, हमें टिकने को मजबूर मत करो। तुम अपनी मन मर्जी करो और हमारा ध्यान रखो, नहीं तो हम टिक जाएंगे।
हम टिक नहीं पाए इसलिए हमें बिकते रहने दो। अखबार निकालने वालों की तुलना में अखबार न निकालने वालों से 'तोपें' ज्यादा डरती हैं। अब जो अखबार निकाल ही रहा है उसे तो हजारों दूसरे काम होते हैं और उसे तो किसी तरह निकालना जरूरी है इसलिये उसका ध्यान केवल अपने अखबार निकालने की तरफ रहता है, लेकिन अखबार न निकालने वाले तो बाल की खाल और ढोल की पोल में घुसने के लिए जगह तलाशते रहते हैं। भूखे भेडिय़ों की तरह यहां वहां पहुंचने की कोशिशें करते हैं, जहाँ 'तोपों' के हित में उन्हें नहीं होना चाहिए। इसीलिए 'तोपों' की कोशिश रहती है कि इसका अखबार न निकले। इसीलिये ये 'तोपें' अखबार वालों को समय-समय पर भला किया करती हैं और उनकी पत्तेचाटी भी।
अखबार निकालने वालों की तुलना में अखबार न निकालने वालों की सक्रियता देखते ही बनती है। अखबार निकालने वालों की तुलना में सभी चिंताओं से मुक्त अखबार निकालने वाले प्रभावशाली नेताओं के ईद-गिर्द ही घूमते रहते हैं।
वे जनसंपर्क विभाग से निरंतर संपर्क रखते हैं। उन्हें ज्यादातर हमेशा यह पता होता है कि कब किसकी प्रेस कान्फ्रेंस कहां होने वाली है। अखबार निकालने वाले जब चुटीले प्रश्न खोज रहे होते हैं तब अखबार न निकालने वाले गर्म समोसों की खुशबू सूंघ रहे होते हैं। कोल्ड ड्रिंक की बोतलों के ढक्कनों के खुलने की प्रतीक्षा में होते हैं। वहां उपहार स्वरूप मिलने वाले उपहारों की संभावनाओं को तलाश रहे होते हैं, उनका मूल्यांकन कर रहे होते हैं। उस समय ये न तो प्रेस वाले होते हैं न ही अखबार निकालने वाले, उस समय ये सिर्फ खाने वाले होते हैं वह भी हराम का। अगर उनको अपने पेट भरने में कोई समस्या आड़े आती है तो बड़ा सा मुंह खोल कर बोलते हैं कि 'हमसे डरो, हम अखबार वाले हैं। मेरा मेरा काम नहीं हुआ (पेट नहीं भरा) तो हम अखबार छाप देंगे।'