गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

शिक्षा का बदलता स्वरूप

शिक्षा का बदलता स्वरूप
बिना गुरु के ज्ञान असम्भव

वर्तमान समय में लोग कहते हैं कि गुरु व शिष्य के बीच सेवा भाव का लोप हो गया है। लेकिन ऐसा नहीं है। गुरु अपने शिष्य को विद्यालय से अलग बुलाकर विशेष तरीके से उसको शिक्षित करता है। शिष्य भी अपने कत्र्तव्य से पीछे नहीं हटता है। अपने गुरु व गुरुजी के घर के सारे कामों को बखूबी जिम्मेदारी से करता है। आधुनिक गुरु अर्थात अध्यापक लोग अपने शिष्यों यानी छात्रों के लिये विशेष शिक्षा केन्द्रजैसे कोचिंग सेण्टर व इंस्टीट्यूट जैसे कुटीर व लघु शिक्षा केन्द्रों (उद्योग धन्धों) का शुभारम्भ किया बल्कि उसे पूर्ण रूप से विकसित भी किया। इस प्रक्रिया को वह लोग निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ाते भी जा रहे हैं।
हमारे देश में कई वेद, शास्त्र व पुराण अनेक विद्वानों द्वारा लिखे गये। लेकिन इस कोचिंग व्यवस्था पर कोई ग्रन्थ या पुराण नहीं लिखा गया। शास्त्रों की बखिया उधेडऩे वाले उन विद्वानों के लिए यह डूब मरने की बात है जिन्होंने वेदों में प्रमुख ऋगुवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और शास्त्रों और पुराणों में अग्निपुराण, भागवतपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, गरुणपुराण, कर्मपुराण, लिंगपुराण, मारकाण्डेय पुराण, मतस्यपुराण, नारद पुराण, नरसिह्मापुराण, पदमपुराण, शिवपुराण, स्कन्द पुराण, वैवत्रपुराण, वामन पुराण, वारहपुराण, विष्णुपुराण। लेकिन कलयुग के इस आधुनिक युग के लिये एक बेहद जरूरी व महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखना भूल गये। जिसका नाम मेरे हिसाब से कोचिंग सेण्टर या फिर लघु व कुटीर उद्योग शिक्षा-शास्त्र/पुराण होना चाहिये।
हमारे आधुनिक अध्यापक इस ग्रन्थ की उपयोगिता व आवश्यकता को समझते हुये इसकी नींव रख दी है। वे छात्रों को कोचिंग पढऩे के लिये अपने नवीनतम तरीकों से मजबूर करते रहते हैं।
इसके कई तरीके हैं- कक्षा में देर से आना, कक्षा में पहुँचकर माथा पकड़कर बैठ जाना। एकाध सवाल समझाकर सारे कठिन सवाल गृह-कार्य के रूप में देना। यदि छात्र कक्षा में कुछ पूछे तो - 'कक्षा के बाद पूछ लेना' कह देना। कक्षा के बाद पूछे तो 'घर आओ तब ही ढंग से बताया जा सकता है।' दूसरी विधि-छमाही परीक्षा में चार-पाँच को छोड़ बाकी छात्रों को फेल कर देना। फिर देखिए सुबह-शाम छात्रों की भीड़ अध्यापकों के घर में दिखने लगती है।
अभिभावक लोग अध्यापक से न जाने क्यों जलते हैं? जो अपनी ही आग में जला जा रहा है उस बेचारे से क्या जलना? राम तो विष्णु के अवतार थे उन्हें भी गुरु के घर जाना पड़ा। यह कारण था कि अल्पकाल में ही उन्होंने सारी विद्याएँ प्राप्त कर लीं थीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इस बात की पुष्टि की है- गुरु गृह गए पढऩ रघुराई। अल्पकाल विद्या सब पाई। जब भगवान का यह हाल था तो भला आज के छात्र की क्या औकात कि वह अपने विषय के अध्यापक से विशेष प्रकार की शिक्षा ग्रहण (ट्यूशन न पढ़े) न करे।
कलयुगी अध्यापकों ने अपनी काबिलियत और ज्ञान को बेचना अपना पेशा बना लिया है। ये कोचिंग सेण्टर के नाम से अपनी दुकानें चलाते हैं। कुछ लोग यह काम बड़े स्तर पर करते हैं। इसके लिये वे इंस्टीट्यूट नामक बड़े उद्योग की शुरूआत करते हैं।
इस प्रकार जब उनकी दुकानें चल निकलती हैं तो दो शिफ्टों में सुबह और शाम को वास्तविक पढ़ाई शुरू हो जाती है। गुरु जी पढ़ाते समय विभिन्न दैनिक एवं पारिवारिक कार्यों को भी संपन्न करते रहते हैं, अच्छा भी है-एक पंथ दो काज।
कुछ लोग कहते हैं कि छात्रों के हृदय से सेवा-भावना का लोप हो रहा है। इन गैर सरकारी 'कुटीर एवं लघु शिक्षा केन्द्रों व इंस्टीट्यूट जैसे बड़ी उद्योग फर्मों का निरीक्षण करें तो उन्हें अपनी विचारधारा बदल देनी पड़ेगी। सुबह के समय एक छात्र डेरी से दूध ला रहा है। दूसरा छात्र अपने गुरु के पुत्र को उसके विद्यालय पहुँचा रहा है। तीसरा छात्र गुरु पत्नी की सेवा में जुटा हैं और सिल पर मसाला पीस रहा है, चौथा छात्र घर की रसोई में सहायता कर रहा है। चक्की से गेहूँ पिसवा कर लाना, सब्ज़ी मंडी से सब्ज़ी लाना, धोबी के यहाँ मैले कपड़े भिजवाना, गुरु जी के लिए दुकान से बीड़ी-पान खऱीद कर लाना इन सभी कार्यों को छात्र ही संपन्न करते हैं। उसके बावजूद भी कुछ बुद्धिजीवी लोग यही कहते हैं कि छात्रों के हृदय से अपने गुरु अर्थात अध्यापक के प्रति सेवा-भावना का लोप हो रहा है। यह तो सरासर नाइन्साफी है छात्रों के साथ।
यदि सेवा भावना से गुरु प्रसन्न है तब भगवान भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गुरु जी अगर नाराज है तो भगवान भी सहायता नहीं कर सकते। ज्ञान ध्यान स्नान के लिए एकांत होना आवश्यक है। कक्षा की भीड़-भाड़ में ज्ञान-चर्चा करना व्यर्थ है। आज हमारी सरकार शिक्षा-नीति के परिवर्तन पर बहुत ध्यान दे रही हैं। मेरी सलाह कोई माने तो 'हींग लगे न फिटकारी रंग चोखा चढ़े।' सब विद्यालय बंद करा दिए जाएं। भवन-निर्माण, फर्नीचर, वेतन सभी खर्च समाप्त। छात्रों के उज्जवल भविष्य व अच्छी पढ़ाई के लिये कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केंद्र चलाने के लिए धाकड़ अध्यापकों को प्रोत्साहित किया जाए। क्योंकि वर्तमान में जाने-अनजाने में हो तो यही रहा है। विद्यालय में छात्रों की संख्या भले ही कम हो लेकिन इन पढ़ाई के कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केंद्रों पर किसी विद्यालय के छात्रों की संख्या से यहां की संख्या कम नहीं होती। इस कारण अध्यापकों का भी कत्र्तव्य बनता है कि वह अपने प्रिय छात्रों का विशेष रूप से ध्यान रखें। आखिर वह बड़ी-बड़ी रकम ट्यूशन फीस के रूप में जो देते हैं। इसलिये अध्यापक अपने इस कत्र्तव्य पथ से जरा भी भ्रमित नहीं होते। अपना कार्य वे बखूबी निभाते हैं।
अपने प्रिय छात्र के लिए अध्यापक को कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते हैं। परीक्षा कक्ष में नकल की विशेष छूट देना, पेपर आउट करना, कापी में नंबर बढ़ाना या घर जाकर कापी में लिखवाना। लिखित परीक्षा में दस प्रतिशत नंबर लाने वाले छात्र को प्रयोगात्मक परीक्षा में नब्बे प्रतिशत अंक दिलवाना आदि बहुत-सी सेवाएँ सम्मिलित हो जाती हैं।
यदि कोई सनकी अध्यापक इनके धंधे-पानी में बाधा बनता है तो ये विषैले साँप बनकर उसे डसने का मौका ढूँढ़ते रहते हैं। मुँह का ज़ायका बदलने के लिए ये चुगली का भी सहारा लेते हैं। यदि अर्ध-वार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को बोर्ड की परीक्षा से वंचित करने का नियम दिया जाए। इससे ट्यूशन के कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन मिलेगा तथा धंधे की गिरती हुई प्रतिष्ठा को बल मिलेगा।
कानपुर कभी अनेक लघु एवं कुटीर उद्योग धन्धे व बड़े-बड़े कारखाने का केन्द्र माना जाता था। लेकिन समय के साथ वे सब तो बन्द हो गये लेकिन कानपुर वासियों ने उसकी अस्मिता को बचाये रखा। उन्होंने कोचिंग व ट्यूशन के बहाने से कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केन्द्रों का न कि शुभारम्भ किया बल्कि उसे पूर्ण रूप से विकसित भी किया। वर्तमान में कानपुर शिक्षा का केन्द्र माना जाने लगा है। कोचिंग सेण्टर व कुटीर एवं लघु उद्योग व इंस्टीट्यूट जैसी बहुत सी फर्में जो जगह-जगह हैं इस बात का प्रमाण हैं।

ध्वस्त होता ट्राफिक! सिपाहियों को है न फिक्र

ध्वस्त होता ट्राफिक! सिपाहियों को है न फिक्र

कानपुर। भाइयों आपने एक कहावत तो सुनी ही होगी 'एक अनार, सौ बीमार'। शहर के यातायात की भी कुछ यही स्थिति है। यहां ट्राफिक सिपाहियों से दो गुने तो चौराहे हैं। अब इस स्थिति में यातायात व्यवस्था सुधरे भी कैसे? लगभग पिछले कुछ वर्षों से यह समस्या है पर प्रशासन है कि सिपाहियों की नयी भर्ती करता ही नहीं है। अब जितने सिपाही हैं उससे दो गुने होमगार्डों को शामिल कर शहर के चौराहों पर तैनात किया जाता है जिससे शहर की यातायात व्यवस्था को नियंत्रित किया जा सके। अब जिन चौराहों पर ट्राफिक पुलिस या होमगार्डों के जवान नहीं तैनात होते हैं वहीं से यातायात व्यवस्था ध्वस्त होने लगती है।
शहर मे बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण ध्वस्त हो चुकी यातायात व्यवस्था हैं। जिसके बारे में रोज नये नये समीकरण बनाये जाते हैं परन्तु चंद दिनों के बाद वो सभी समीकरण फेल हो जाते हैं। कुछ गिनें चुनें प्रमुख चौराहो के अलावा पूरे कानपुर में यातायात व्यवस्था का कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता हैं। जिन छोटे चौराहों तथा नाकों पर यातायात व्यवस्था रखी गई हैं। वहां ट्रैफिक पुलिस, सिपाही व होमगार्ड किसी पेंड़ की छांव में बैठें कर धूम्रपान का आनंद उठाते देखे जाते हैं। वो अपनी हरकत में तभी आते हैं जब वहां जाम लग जाता हैं या फिर उनको पता होता है कि कोई अधिकारी यहां से गुजरने वाला है। इसके बाद यातायात सामान्य हो जाने पर वो पुन: अपने आंनद में डूब जाते हैं।
यातायात व्यवस्था ध्वस्त होने का एक और मुख्य कारण यह भी है कि सिपाहियों और होमगार्डों को अपना जेब खर्च भी ड्यिूटी के समय निकालना होता है। ये लोग प्राय: उन नवजवान लड़कों की तलाश में रहते हैं जिनके पास कुछ पैसे होने की सम्भावना उनके लगती है या फिर नये वाहन होते हैं और उनको देखकर यह आभास होता है कि ये कम से कम १००-२०० दे सकता है। पहले तो ये लाइसेंस मांगते हैं, लाइसेंस होने पर गाड़ी के कागज मांगते हैं, वो भी हों तो गाड़ी का मीटर सही है या नहीं, गाड़ी की सभी लाइटें सही हैं या नहीं वगैरह-वगैरह....। कुछ भी करके उनको अपना खर्चा निकालना होता है। चूंकि सिपाहीगण इस काम में व्यस्त रहते हैं तो जिन चौराहों पर सिपाहियों की तैनाती होती है वहां भी जाम लगने लगता है। फिर ये कुछ अपनी हरकत में आ जाते हैं और ड्यिूटी पर तैनात दिखाई देने लगते हैं। पर कुछ समय के लिये। जाम कम होते ही ये फिर अपने-अपने काम में लग जाते हैं।
टैम्पो, विक्रम, ट्रैक्टर, ट्रक आदि जैसी गाडिय़ों का तो इनका फिक्स चार्ज होता है। अगर यहां से गुजरना है तो इतना...इतना...इतना देना है। अगर कोई टैम्पो दिन में चार बार एक स्थान से गुजरती है तो टैम्पो चालक को चार बार गैर कानूनी टैक्स (रिश्वत) देना होता है।
इस प्रकार से इनके पूरे दिन का शाही भोजन व खर्चवाहन चालक पूरा करते हैं। ये सरकार से वेतन केवल बैठने का और कामचोरी का लेते हैं।
अगर इसी तरह ये आंनद लेते रहेगें तो उन वाहन चालकों का क्या होगा जिन्हें ये भी नहीं पता कि अपने घर से मात्र २० किमी. जाने में वो अपने घर वापस सही सलामत आ पायेंगें या यातायात व्यवस्था की भेंट चढ़ जायेंगे।
रात लगभग दस के बाद नो इंट्री खुलने के ट्रक, टैण्कर जैसे बड़े वाहन इतनी तेजी से निकलते हैं कि अगर कोई सामने आ जाये तो वह बच नहीं सकता। उसको अपनी जान गंवानी पड़ती है। वह भी क्या करें अगर वह सामान्य गति अर्थात निर्धारित गति से चलेंगे तो उनको सिपाहीगण जगह-जगह पर रोक कर अपना गैर कानूनी टैक्स यानी रिश्वत वसूलते हैं। यह टैक्स प्रति वाहन २० से ५० रुपये तक होता है किसी-किसी से १०० तक मिल जाये तो कोई मनाही नहीं है। इनके २० रुपये, ५० रुपये के लालच में आम जनता को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। क्योंकि सिपाहियों से बचने के लिये यह जरूरत से ज्यादा तेजी से चलते हैं और ऐसी स्थिति में दुर्घटनाओं की सम्भावना बढ़ जाती है।
पता नहीं कब सुधरेगी यातायात व्यवस्था और शहर के यातायात को नियंत्रित रखने वाली ये कानून व्यवस्था। ऐसी स्थितियों में तो सड़क पर चलना सिर्फ भगवान भरोसे है।

आग एक, रूप अनेक

आग एक, रूप अनेक
आग, जिससे हर पल तपता है समाज...

'आग' आग का मतलब क्या होता है? आग किसे कहते हैं? आग क्यों होती है? यह आग क्या, क्यों और किसे, किस-किस रूप में नुकसान पहुंचाती है? क्या कभी सोचा है आपने...? आग कोई भी हो, कैसी भी हो, लेकिन होती तो वो आग ही है।
अक्सर लोग आग लगने का मतलब यही लगाते हैं कि कहीं किसी क्षेत्र, परिवेश, घर, झोपड़ी, मकान, फैक्ट्री, गोदाम या किसी वस्तु विशेष में आग लगी और वह जल कर राख हो गयी। लेकिन आग का मतलब सिर्फ किसी वस्तु या पदार्थ का जलना नहीं होता बल्कि कुछ और भी होता है। आग के कई विकराल रूप भी हैं जिनसे हम बखूबी वाकिफ हैं।
आग बड़ी प्रबल होती है। आग का होना और न होना दोनों घातक माना जाता है। आग को सर्वशक्तिमान कहा गया है जिसमें सब कुछ स्वाहा हो जाता है 'काह न पावक सके, का न समुद्र समाय' कहा गया है। आग पेट की भी होती है और पानी की भी तथा काष्ठ की भी होती है। आग पानी की दुश्मनी है पर पानी में आग समाहित भी रहती है। आदमी का आग से जन्म से मृत्यु तक का साथ है।
आग लगाना अच्छा नहीं होता। होली की आग, चूल्हे की आग, पेट की आग और भट्ठी की आग अलग-अलग होती है। दिल की आग या तो प्रेम के कारण होती है अथवा दुश्मनी के कारण बनती है। कभी-कभी क्रोध में आंखें भी अंगारे बरसाने लगती है। वे आगे बबूला होकर चिनगारियों और लपटों में बदल जाती हैं। दुश्मनी की आग बुझाने का काम समझदार और सहनशील लोग करते हैं, पर अवसरवादी दुर्जन तो आग में घी डालकर बढ़ाने की चेष्टा करते हैं। आग को हवा देना किसी के लिये अच्छा नहीं है। आग किसी को छोड़ती नहीं। एक बार आग की लपटें उठीं तो वे जलाकर ही दम लेती हैं। आग की लपटें किसी को भी नहीं बख्सती हैं। चाहे वह किसी भी श्रेणी में आता हो। आग आग होती है उसका काम जलाना अर्थात सब कुछ बरबाद कर देना होता है।
अत: आग लगाकर पानी को दौडऩा न बुद्धिमानी है और न मनुष्यता। ऐसे लोग पाखंडी होते हैं। कई लोग तो जलती आग में अपने हाथ सेंकने तथा रोटी सेंकने से भी नहीं चूकते हैं। उन्हें किसी के दुख दर्द में कोई सहानुभूति नहीं होती है। उनके लिये स्वार्थ ही सर्वोपरि होता है। कुछ लोग आग लगाकर दूर से तमाशा भी देखते हैं। एक दूसरे को आपस में लगवाकर उनमें आपस में दुश्मनी करवा देते हैं और ऐसा कर वह अपना मतलब सीधा कर लेते हैं। उनकी आपसी लड़ाई का ये बखूबी फायदा उठाते हैं। हमें इन्हें पहचानना होगा। अन्यथा हमारा समाज कभी भी शांतिपूर्वक नहीं रह पायेंगे।
कुछ लोग जरा-सी बात को जंगल की आग की तरह फैलाते हैं। ऐसी बातों को अफवाहें भी कहते हैं। जंगल की आग अपना-पराया नहीं पहचानती। जलती आग की धधकती लपटें सबको अपने में समेट कर ख़ाक कर देती हैं। आदमी तेज बुखार से भी आग की तरह तपता है और किसी भीतरी आघात अथवा अपमान से भी तपता रहता है। भीतर की यह आग दुश्मनी का रूप ग्रहण कर लेती है। विरहणियों (प्रेमिकाओं)के लिये तो चन्द्रिका की किरणें और चांदनी भी आग बन जाती है। बहुतेरी प्रेमिकाओं को चन्द्रमा ने भस्म कर दिया। प्रेम के प्रभात से नायक नायिकायों की आँखें अग्निवाण का काम करने लगती हैं। आग की कहानियों से हमारा साहित्य भरा हुआ है। पेट की आग सबसे भयानक और खतरनाक होती है, यह आदमी से न जाने क्या-क्या, उचित-अनुचित कार्य कराती रहती है। पेट की आग मान-अपनान से परे बन जाती है। जब तक पेट की आग शांत नहीं हो जाती तब तक न घर अच्छा लगता है, न घर के लोग, न परिवार के लोग, न ही मित्र, न ही सहयोगी। यहां तक कि उसके अपने खुद के बच्चे भी कुछ क्षणों के लिये पराये से हो जाते हैं। क्या करें यह पेट की आग है ही कुछ ऐसी। इसीलिये कहावत भी कही गयी है कि -
'भूखे भजन न होहिं गोपाला, या लेव अपनी कण्ठी-माला।'
जिन नौजवान युवकों के भीतर सम्मान, स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम की आग नहीं होती, उनका जीवन बेकार है। अन्तरात्मा की आग व्यक्ति को शाक्तिमान और साधन-सिद्ध बनाती है। इसलिये सर्जना और साधना की आग को बनाये और उसे सुलगाये रहना चाहिये। आग का ठंडा होना जीवन की समाप्त का द्योतक है। जो आग की पूजा करते हैं, आग से नहीं डरते, वे ही जीवन में अविस्मरणीय कार्य करते हैं। इसीलिये स्वर्गीय दुष्यंत त्यागी ने कहा था-
'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही।
हो कहीं भी आग, लेकिन आग होनी चाहिये।'
प्यार और भूंख में अलंकार भी आग बन जाते है। आग धधकाने में भी समय लगता है और धधकती आग को ठंडा करना भी इतना आसान नहीं होता। कई बार तो हवन करने में भी हाथ जल जाते हैं। निर्भीक बलिदानी और बहादुर लोग अंगारों से खेलते हैं। वे दूसरों को आग में झोंकने की बजाय आग को अपनी मजबूत मुट्ठियों में बन्द कर लोगों को प्रेरित करते हैं। वाणी से आग उगलते रहने की बजाय हमें दूसरों की आग शांत करना चाहिये। आग की तरह खौलते रहना अच्छा नहीं होता। शांति से विचार करना सार्थक और रचनात्मक होता है। किसी कवि ने कहा भी है कि:-
'जब भूख की आंधी आती है तो,
अच्छा-बुरा
ईमान-धरम
अपना-पराया
सब कुछ उड़ा ले जाती है
टूट जाते है सब बंधन
कड़ी बस एक
पेट और मुहँ की
शेष रह जाती है।'

भारतीय संस्कृति की एक धरोहर

हिन्दी भाषा: भारतीय संस्कृति की एक धरोहर है

भारत को मुख्यता हिन्दी भाषी माना गया है। हिन्दी भाषा का उद्गम केन्द्र संस्कृत भाषा है। लेकिन समय के साथ संस्कृत भाषा का लगभग लोप होता जा रहा है। यही हाल हिन्दी भाषा का भी हो सकता है अगर इसके लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं किये गये तो। भारतीय संविधान के तहत सभी सरकारी और गैर सरकारी दफ्तरों में हिन्दी में कार्य करना अनिवार्य माना गया है। लेकिन शायद ही कहीं हिन्दी भाषा का प्रयोग दफ्तर के कायों में होता हो। हर क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का बोलबाला है। किसी को अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं तो उसको नौकरी मिलना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी होता है। जबकि यह गलत कृत्य है सरासर भारतीय संविधान के कानून की अवहेलना है।
भारत वर्ष में प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस १४ सितम्बर को मनाया जाता है। १४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् १९५३ से संपूर्ण भारत में १४ सितंबर को भारत में प्रति वर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन सिर्फ भारत में ही १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है।
विश्व हिन्दी दिवस प्रति वर्ष १० जनवरी को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी में व्याख्यान आयोजित किये जाते हैं।
जब भारत देश स्वतंत्र हुआ था तब भारतवासियों ने सोचा होगा कि उनके आजाद देश में उनकी अपनी हिन्दी भाषा, अपनी संस्कृति होगी लेकिन यह क्या हुआ? अंग्रेजों से तो भारतवासी आजाद हो गए पर अंग्रेजी ने भारतवासियों को जकड़ लिया।
भारतीय संविधान के अनुसार हिन्दी भाषी राज्यों को अंग्रेजी की जगह हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। महात्मा गांधी के समय से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति दक्षिण भारत नाम की संस्था अपना काम कर रही थी। दूसरी तरफ सरकार स्वयं हिन्दी को प्रोत्साहन दे रही थी यानी अब हिन्दी के प्रति कोई विरोधाभाव नहीं था।
अंग्रेजी विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रमुख भाषा है। लेकिन भारतवासियों को अंग्रेजी का प्रयोग पूरी तरह खत्म कर देना चाहिये। क्योंकि यह सच है कि यह हमें साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली है।
अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भारत वर्ष में हिन्दी भाषा की अपेक्षा कहीं अधिक ज्यादा किया जाता है। लेकिन क्यों? भारत वर्ष हिन्दी भाषी राष्ट्र है। उसको हिन्दी के प्रचार व प्रसार पर ध्यान देना चाहिये। वैसे इस विषय में हमारे कुछ बुद्धिजीवियों ने गहन विचार-विमर्श कर हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार व प्रयोग इंटरनेट के माध्यम से करना शुरू कर दिया है। हिन्दी भाषा का प्रयोग वर्तमान में ब्लाग पर खूब किया जा रहा है। कई वेबसाइट भी हैं जो हिन्दी भाषा में हैं। यह एक सार्थक प्रयास है हिन्दी भाषा की प्रगति एवं उत्थान के लिये।
अंग्रेजी के इस बढ़ते प्रचलन के कारण एक साधारण हिन्दी भाषी नागरिक आज यह सोचने पर मजबूर है कि क्या हमारी पवित्र पुस्तकें जो हिन्दी में हैं, वह भी अंग्रेजी में हो जाएंगी। हमारा राष्ट्रगीत, राष्ट्रगान, हमारी पूजा-प्रार्थना सब अंग्रेजी में हो जाएंगे। हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। लेकिन वर्तमान में जो नई पीढ़ी जन्म ले रही है उसको बचपन से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में शिक्षा ग्रहण के लिये भेज दिया जाता है। वह बचपन से ही अंग्रेजी भाषा को पढ़ता व लिखता है और उसी भाषा को अपनी मुख्य भाषा समझने लगता है। क्योंकि उसको माहौल ही वैसा मिलता है। इसमें उसकी क्या गलती। लेकिन किसी न किसी की गलती तो है ही। इस विषय में हमें विचार करना चाहिये। क्या इस प्रकार के रवैये से हमारी यह उम्मीद कि 'हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलान ' कभी संभव हो पाएगा।

हिन्दी भाषा भारतीय संस्कृति की एक धरोहर है जिसे बचाना भारतवासियों का परमकत्र्तव्य होना चाहिये। वर्तमान में हिन्दी भाषा का प्रयोग न कि भारत में बल्कि भारत के बाहर के कई देशों में भी किया जा रहा है। ध्यान, योग आसन और आयुर्वेद विषयों के साथ-साथ इनसे सम्बन्धित हिन्दी शब्दों का भी विश्व की दूसरी भाषाओं में विलय हो रहा है। भारतीय संगीत चाहे वह शास्त्रीय हो या आधुनिक हस्तकला, भोजन और वस्त्रों की विदेशी मांग जैसी आज है पहले कभी नहीं थी। लगभग हर देश में योग, ध्यान और आयुर्वेद के केन्द्र खुल गए हैं। जो दुनिया भर के लोगों को भारतीय संस्कृति की ओर आकर्षित करते हैं। ऐसी संस्कृति जिसे पाने के लिए हिन्दी के रास्ते से ही पहुंचा जा सकता है। हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार व इसके प्रयोग को बल देने के लिये कई महापुरुषों ने अपने मत इस प्रकार दिये:-


महात्मा गाँधी : कोई भी देश सच्चे अर्थो में तब तक स्वतंत्र नहीं है जब तक वह अपनी भाषा में नहीं बोलता। राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है।
काका कालेलकर : यदि भारत में प्रजा का राज चलाना है तो वह जनता की भाषा में ही चलाना होगा।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस : प्रांतीय ईष्र्या-द्वेष दूर करने में जितनी सहायता हिन्दी प्रचार से मिलेगी, दूसरी किसी चीज से नहीं।
लालबहादुर शास्त्री : राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा हिन्दी ही हो सकती है।
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन : हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। हिन्दी राष्ट्रीयता के मूल को सींचकर दृढ़ करती है।
रेहानी तैयबजी : हम हिन्दुस्तानियों का एक ही सूत्र रहे- हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी हमारी लिपि देवनागरी हो।
महर्षि दयानंद सरस्वती : हिन्दी द्वारा सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय : यदि हिन्दी की उन्नति नहीं होती है तो यह देश का दुर्भाग्य है।
अनन्त गोपाल सेवड़े : राष्ट्र को राष्ट्रध्वज की तरह राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है और वह स्थान हिन्दी को प्राप्त है।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक : राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं। मेरे विचार में हिन्दी ही ऐसी भाषा है।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी : यदि भारतीय लोग कला, संस्कृति और राजनीति में एक रहना चाहते हैं तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है।
लाला लाजपत राय : राष्ट्रीय मेल और राजनीतिक एकता के लिए सारे देश में हिन्दी और नागरी का प्रचार आवश्यक है।
डॉ. भगवान दास : हिन्दी साहित्य चतुष्पुरुषार्थ धर्म-अर्थ काम-मोक्ष का साधन है और इसीलिए जनोपयोगी भी है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र : निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
मोरारजी देसाई : हिन्दी को देश में परस्पर संपर्क भाषा बनाने का कोई विकल्प नहीं। अँग्रेजी कभी जनभाषा नहीं बन सकती।
महादेवी वर्मा : हिन्दी प्रेम की भाषा है।
महाकवि शंकर कुरूप : भारत की अखंडता और व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए हिन्दी का प्रचार अत्यन्त आवश्यक है।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

शिक्षा का बदलता स्वरूप

बिना गुरु के ज्ञान असम्भव...
वर्तमान समय में लोग कहते हैं कि गुरु व शिष्य के बीच सेवा भाव का लोप हो गया है। लेकिन ऐसा नहीं है। गुरु अपने शिष्य को विद्यालय से अलग बुलाकर विशेष तरीके से उसको शिक्षित करता है। शिष्य भी अपने कत्र्तव्य से पीछे नहीं हटता है। अपने गुरु व गुरुजी के घर के सारे कामों को बखूबी जिम्मेदारी से करता है। आधुनिक गुरु अर्थात अध्यापक लोग अपने शिष्यों यानी छात्रों के लिये विशेष शिक्षा केन्द्रजैसे कोचिंग सेण्टर व इंस्टीट्यूट जैसे कुटीर व लघु शिक्षा केन्द्रों (उद्योग धन्धों) का शुभारम्भ किया बल्कि उसे पूर्ण रूप से विकसित भी किया। इस प्रक्रिया को वह लोग निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ाते भी जा रहे हैं।
हमारे देश में कई वेद, शास्त्र व पुराण अनेक विद्वानों द्वारा लिखे गये। लेकिन इस कोचिंग व्यवस्था पर कोई ग्रन्थ या पुराण नहीं लिखा गया। शास्त्रों की बखिया उधेडऩे वाले उन विद्वानों के लिए यह डूब मरने की बात है जिन्होंने वेदों में प्रमुख ऋगुवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और शास्त्रों और पुराणों में अग्निपुराण, भागवतपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, गरुणपुराण, कर्मपुराण, लिंगपुराण, मारकाण्डेय पुराण, मतस्यपुराण, नारद पुराण, नरसिह्मापुराण, पदमपुराण, शिवपुराण, स्कन्द पुराण, वैवत्रपुराण, वामन पुराण, वारहपुराण, विष्णुपुराण। लेकिन कलयुग के इस आधुनिक युग के लिये एक बेहद जरूरी व महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखना भूल गये। जिसका नाम मेरे हिसाब से कोचिंग सेण्टर या फिर लघु व कुटीर उद्योग शिक्षा-शास्त्र/पुराण होना चाहिये।
हमारे आधुनिक अध्यापक इस ग्रन्थ की उपयोगिता व आवश्यकता को समझते हुये इसकी नींव रख दी है। वे छात्रों को कोचिंग पढऩे के लिये अपने नवीनतम तरीकों से मजबूर करते रहते हैं।
इसके कई तरीके हैं- कक्षा में देर से आना, कक्षा में पहुँचकर माथा पकड़कर बैठ जाना। एकाध सवाल समझाकर सारे कठिन सवाल गृह-कार्य के रूप में देना। यदि छात्र कक्षा में कुछ पूछे तो - 'कक्षा के बाद पूछ लेना' कह देना। कक्षा के बाद पूछे तो 'घर आओ तब ही ढंग से बताया जा सकता है।' दूसरी विधि-छमाही परीक्षा में चार-पाँच को छोड़ बाकी छात्रों को फेल कर देना। फिर देखिए सुबह-शाम छात्रों की भीड़ अध्यापकों के घर में दिखने लगती है।
अभिभावक लोग अध्यापक से न जाने क्यों जलते हैं? जो अपनी ही आग में जला जा रहा है उस बेचारे से क्या जलना? राम तो विष्णु के अवतार थे उन्हें भी गुरु के घर जाना पड़ा। यह कारण था कि अल्पकाल में ही उन्होंने सारी विद्याएँ प्राप्त कर लीं थीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इस बात की पुष्टि की है- गुरु गृह गए पढऩ रघुराई। अल्पकाल विद्या सब पाई। जब भगवान का यह हाल था तो भला आज के छात्र की क्या औकात कि वह अपने विषय के अध्यापक से विशेष प्रकार की शिक्षा ग्रहण (ट्यूशन न पढ़े) न करे।
कलयुगी अध्यापकों ने अपनी काबिलियत और ज्ञान को बेचना अपना पेशा बना लिया है। ये कोचिंग सेण्टर के नाम से अपनी दुकानें चलाते हैं। कुछ लोग यह काम बड़े स्तर पर करते हैं। इसके लिये वे इंस्टीट्यूट नामक बड़े उद्योग की शुरूआत करते हैं।
इस प्रकार जब उनकी दुकानें चल निकलती हैं तो दो शिफ्टों में सुबह और शाम को वास्तविक पढ़ाई शुरू हो जाती है। गुरु जी पढ़ाते समय विभिन्न दैनिक एवं पारिवारिक कार्यों को भी संपन्न करते रहते हैं, अच्छा भी है-एक पंथ दो काज।
कुछ लोग कहते हैं कि छात्रों के हृदय से सेवा-भावना का लोप हो रहा है। इन गैर सरकारी 'कुटीर एवं लघु शिक्षा केन्द्रों व इंस्टीट्यूट जैसे बड़ी उद्योग फर्मों का निरीक्षण करें तो उन्हें अपनी विचारधारा बदल देनी पड़ेगी। सुबह के समय एक छात्र डेरी से दूध ला रहा है। दूसरा छात्र अपने गुरु के पुत्र को उसके विद्यालय पहुँचा रहा है। तीसरा छात्र गुरु पत्नी की सेवा में जुटा हैं और सिल पर मसाला पीस रहा है, चौथा छात्र घर की रसोई में सहायता कर रहा है। चक्की से गेहूँ पिसवा कर लाना, सब्ज़ी मंडी से सब्ज़ी लाना, धोबी के यहाँ मैले कपड़े भिजवाना, गुरु जी के लिए दुकान से बीड़ी-पान खऱीद कर लाना इन सभी कार्यों को छात्र ही संपन्न करते हैं। उसके बावजूद भी कुछ बुद्धिजीवी लोग यही कहते हैं कि छात्रों के हृदय से अपने गुरु अर्थात अध्यापक के प्रति सेवा-भावना का लोप हो रहा है। यह तो सरासर नाइन्साफी है छात्रों के साथ।
यदि सेवा भावना से गुरु प्रसन्न है तब भगवान भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गुरु जी अगर नाराज है तो भगवान भी सहायता नहीं कर सकते। ज्ञान ध्यान स्नान के लिए एकांत होना आवश्यक है। कक्षा की भीड़-भाड़ में ज्ञान-चर्चा करना व्यर्थ है। आज हमारी सरकार शिक्षा-नीति के परिवर्तन पर बहुत ध्यान दे रही हैं। मेरी सलाह कोई माने तो 'हींग लगे न फिटकारी रंग चोखा चढ़े।' सब विद्यालय बंद करा दिए जाएं। भवन-निर्माण, फर्नीचर, वेतन सभी खर्च समाप्त। छात्रों के उज्जवल भविष्य व अच्छी पढ़ाई के लिये कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केंद्र चलाने के लिए धाकड़ अध्यापकों को प्रोत्साहित किया जाए। क्योंकि वर्तमान में जाने-अनजाने में हो तो यही रहा है। विद्यालय में छात्रों की संख्या भले ही कम हो लेकिन इन पढ़ाई के कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केंद्रों पर किसी विद्यालय के छात्रों की संख्या से यहां की संख्या कम नहीं होती। इस कारण अध्यापकों का भी कत्र्तव्य बनता है कि वह अपने प्रिय छात्रों का विशेष रूप से ध्यान रखें। आखिर वह बड़ी-बड़ी रकम ट्यूशन फीस के रूप में जो देते हैं। इसलिये अध्यापक अपने इस कत्र्तव्य पथ से जरा भी भ्रमित नहीं होते। अपना कार्य वे बखूबी निभाते हैं।
अपने प्रिय छात्र के लिए अध्यापक को कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते हैं। परीक्षा कक्ष में नकल की विशेष छूट देना, पेपर आउट करना, कापी में नंबर बढ़ाना या घर जाकर कापी में लिखवाना। लिखित परीक्षा में दस प्रतिशत नंबर लाने वाले छात्र को प्रयोगात्मक परीक्षा में नब्बे प्रतिशत अंक दिलवाना आदि बहुत-सी सेवाएँ सम्मिलित हो जाती हैं।
यदि कोई सनकी अध्यापक इनके धंधे-पानी में बाधा बनता है तो ये विषैले साँप बनकर उसे डसने का मौका ढूँढ़ते रहते हैं। मुँह का ज़ायका बदलने के लिए ये चुगली का भी सहारा लेते हैं। यदि अर्ध-वार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को बोर्ड की परीक्षा से वंचित करने का नियम दिया जाए। इससे ट्यूशन के कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन मिलेगा तथा धंधे की गिरती हुई प्रतिष्ठा को बल मिलेगा।
कानपुर कभी अनेक लघु एवं कुटीर उद्योग धन्धे व बड़े-बड़े कारखाने का केन्द्र माना जाता था। लेकिन समय के साथ वे सब तो बन्द हो गये लेकिन कानपुर वासियों ने उसकी अस्मिता को बचाये रखा। उन्होंने कोचिंग व ट्यूशन के बहाने से कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केन्द्रों का न कि शुभारम्भ किया बल्कि उसे पूर्ण रूप से विकसित भी किया। वर्तमान में कानपुर शिक्षा का केन्द्र माना जाने लगा है। कोचिंग सेण्टर व कुटीर एवं लघु उद्योग व इंस्टीट्यूट जैसी बहुत सी फर्में जो जगह-जगह हैं इस बात का प्रमाण हैं।

हमसे डरो, हम अखबार वाले हैं।

मेरा काम न हुआ तो, ....... छाप देंगे

हमको जानते हो... हम कौन हैं? जरा तमीज से बात करो हमसे वरना हम........छाप देंगे। क्या बात है। आज शहर हो या प्रदेश या फिर देश-दुनिया किसी भी स्थान पर देखने को मिल जाते हैं 'प्रेस' को अपने नाम के साथ जोडऩे वाले। प्रेस का मतलब इनके लिये किसी संस्थान में नौकरी करने वाला एक कर्मचारी नहीं बल्कि खुद प्रेस मालिक अर्थात अखबार वाला होता है। हर किसी से बोलने का लहेजा भी कुछ अलग होता है इनका। मेरा काम नहीं हुआ तो हम........छाप देंगे। सिर्फ इतना बोलने पर इन लोगों के बड़े से बड़े काम हो जाते हैं। ये लोग सिर्फ नाम से काम चलाते रहते हैं। अखबार तो कभी निकलता नहीं है लेकिन खबरें भी कोई छूटती नहीं है इनको पास सारे जहां की खबरें होती हैं और इन खबरों के छपने के चर्चे भी होते हैं। लेकिन किसी अखबार या पत्रिका में छपती नहीं हैं तो आखिर इन खबरों का होता क्या है, कब और कहां छापी जाती हैं।
जब भी अख़बार निकालने की बात चलती है तो अकबर इलाहाबादी जी का शेर याद आ जाता है 'गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।' 'प्रेस' वालों का अखबार सबसे पहले निकल जाता है, भले ही तोप तो क्या तमंचा भी मुकाबिले में न हो। आजकल हर कस्बे हर नगर में हजारों पत्रकार बिना लिखे और बिना अखबार निकाले ही बड़ी-बड़ी 'तोपों' को डराते फिर रहे हैं। ये 'तोपें' भी डर जाती हैं और इन 'प्रेस' अर्थात अखबार वालों को कुछ न छापने के लिये उनका खर्चा-पानी दे देते हैं और अखबार बिना छपे ही खप जाता है।
तोपें पूछती हैं- 'और मिश्रा जी अखबार कैसा चल रहा है?'
'कैसा क्या, चल ही नहीं रहा है बंद पड़ा है अभी फाइलिंग हो रही है' मिश्रा जी बताते हैं।
'क्यों?'
'अरे आप लोग अखबार को चलने ही कहां देते है। अभी तीन महीने पहले एक के.डी.ए. वाले श्रीवास्तव साहब के विभाग की एक स्टोरी छापी थी, कि दूसरे ही दिन बेचारे मेरे दफ्तर में मुंह के बल आकर पैरों पर गिर गये और मिठाई का डिब्बा मेरी तरफ बढ़ा दिया। वह उस मिठाई के डिब्बे में बीस हजार रुपये दे गए और कह गए कि 'मिश्रा जी काहे को कष्ट करते हो, अख़बार निकालने का। अखबार लिखोगे, छपवाओगे, बांटोगे, विज्ञापन बटोरोगे, कमीशन दोगे, पैसा वसूलोगे तब कहीं जाकर दो चार हजार पाओगे। भैया आपका ये छोटा भाई काहे के लिए अपने जूते घिस रहा है। जब छोटा भाई है तो बड़ा भाई क्यों चप्पलें चटकाए। हम हैं ना आपकी सेवा में। आप काहे अखबार निकालने का कष्ट करते हैं- सो तब से बंद पड़ा है। अब तो जब पैसे की दरकार होती है तो किसी 'तोप' के पास चला जाता हूँ और कहता हूँ कि सहयोग करो नहीं तो अखबार निकालना पड़ेगा। ये 'तोप' लोग बहुत ही भले लोग होते हैं, सहयोग की भावना इनमें कूट-कूट कर भरी होती है। अपने अकबर इलाहाबादी जी को लोग सही अर्थों में नहीं लेते, उन्होंने तो बहुत साफ-साफ कहा है कि- गर तोप मुकाबिल हो तो...अखबार निकालो। अब भाई साहब तोप मुकाबिले में ही नहीं आती है तो फिर बिना वजह क्यों अखबार निकालें।'
'तोप' मिश्रा जी के इस आख्यान पर विचार मग्न हो जाए इसके पहले ही वे पुन: निवेदन करते हैं 'भाई साहब एक कष्ट देने आया था। ये तिवारी जी हमारे रिश्तेदार बराबर है, आपके ही विभाग में मुलाजिम है कई वर्षों से देहात क्षेत्र में सड़ रहे हैं बिचारे। इनका तबादला यहीं शहर में ही करवा दें तो बड़ी कृपा होगी। आप जैसी दिव्य मूर्तियों के दर्शनों का सौभाग्य मिलता रहेगा नहीं तो फिर उसी साले अखबार में घुसना पड़ेगा और उसमें लिख कर उसे छापना पड़ेगा।'
'तोप' मिश्रा जी का काम कर देती है।
तिवारी जी भी मिश्रा जी का 'काम' कर देते हैं।
हम कभी भी अखबार निकाल सकते हैं, इसलिए हमसे डरो, नहीं तो अख़बार निकाल देंगे - ऐसा आदेश देते हुए हर नगर कस्बे में डायरी दबाये अनेक लम्बे कुर्ते वाले मिल जाएंगे जो केवल होली, दिवाली, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी को स्थानीय टुकड़ों की फूहड़ कविताओं और त्यौहारों की तरह मिलने वाले सरकारी विज्ञापन के साथ अखबार इसलिए छापते हैं कि वह लोग समाज की नजर में रहें ताकि वक्त जरूरत पर अपना काम निकाला जा सके। अगर वह लोग ऐसा नहीं करेंगे तो उनको और उनके अखबार को लोग भूल जायेंगे। समाज में अपनी पहचान बनाये रखने के लिये दैनिक अखबार को २ या ३ महीने में १ या २ बार किसी तरह से कुछ भी लिखकर उसे छपवा देते हैं। इन 'प्रेस' वालों अर्थात अखबारों वालों का अखबार छपता है तो इनका फायदा, नहीं छपता है तो इनका फायदा। तो अखबार छाप कर अपना बेवजह खर्चा क्यों बढ़ायें जब बिना अखबार छपे ही अपने सारे काम हो जाते हैं।
चूंकि किसी के मुंह पर तो लिखा नहीं रहता कि ये अखबार निकालते हैं सो वे अपनी मोटर बाइक और स्कूटरों पर 'प्रेस' लिखवा लेते हैं- बड़े-बड़े मोटे-मोटे अक्षरों में। इस 'प्रेस' का यह मतलब नहीं है कि हम अखबार वाले हैं अपितु इसका मतलब है कि हम अखबार निकाल सकते हैं। ट्रैफिक के कांस्टेबलों, वर्जित क्षेत्र में प्रवेश कराने वालों, स्कूटर चुराने वालों, चेन स्नैचरों अगर पढ़े-लिखे हो और पढ़ सकते हो तो पढ़ लो कि हम वह हैं जो कभी भी अखबार निकाल सकते हैं इसलिये हमारा भी ध्यान रखना। नहीं निकाल रहे हैं तो इसके लिये हमारा अहसान मानना चाहिये। यह लोकतंत्र का चौथा पाया है जो हमने उपर उठा रखा है अभी। अगर...टिका दिया तो लोकतंत्र चौपाया होकर जम जाएगा। अभी तीन हिस्सों में है, हमें टिकने को मजबूर मत करो। तुम अपनी मन मर्जी करो और हमारा ध्यान रखो, नहीं तो हम टिक जाएंगे।
हम टिक नहीं पाए इसलिए हमें बिकते रहने दो। अखबार निकालने वालों की तुलना में अखबार न निकालने वालों से 'तोपें' ज्यादा डरती हैं। अब जो अखबार निकाल ही रहा है उसे तो हजारों दूसरे काम होते हैं और उसे तो किसी तरह निकालना जरूरी है इसलिये उसका ध्यान केवल अपने अखबार निकालने की तरफ रहता है, लेकिन अखबार न निकालने वाले तो बाल की खाल और ढोल की पोल में घुसने के लिए जगह तलाशते रहते हैं। भूखे भेडिय़ों की तरह यहां वहां पहुंचने की कोशिशें करते हैं, जहाँ 'तोपों' के हित में उन्हें नहीं होना चाहिए। इसीलिए 'तोपों' की कोशिश रहती है कि इसका अखबार न निकले। इसीलिये ये 'तोपें' अखबार वालों को समय-समय पर भला किया करती हैं और उनकी पत्तेचाटी भी।
अखबार निकालने वालों की तुलना में अखबार न निकालने वालों की सक्रियता देखते ही बनती है। अखबार निकालने वालों की तुलना में सभी चिंताओं से मुक्त अखबार निकालने वाले प्रभावशाली नेताओं के ईद-गिर्द ही घूमते रहते हैं।
वे जनसंपर्क विभाग से निरंतर संपर्क रखते हैं। उन्हें ज्यादातर हमेशा यह पता होता है कि कब किसकी प्रेस कान्फ्रेंस कहां होने वाली है। अखबार निकालने वाले जब चुटीले प्रश्न खोज रहे होते हैं तब अखबार न निकालने वाले गर्म समोसों की खुशबू सूंघ रहे होते हैं। कोल्ड ड्रिंक की बोतलों के ढक्कनों के खुलने की प्रतीक्षा में होते हैं। वहां उपहार स्वरूप मिलने वाले उपहारों की संभावनाओं को तलाश रहे होते हैं, उनका मूल्यांकन कर रहे होते हैं। उस समय ये न तो प्रेस वाले होते हैं न ही अखबार निकालने वाले, उस समय ये सिर्फ खाने वाले होते हैं वह भी हराम का। अगर उनको अपने पेट भरने में कोई समस्या आड़े आती है तो बड़ा सा मुंह खोल कर बोलते हैं कि 'हमसे डरो, हम अखबार वाले हैं। मेरा मेरा काम नहीं हुआ (पेट नहीं भरा) तो हम अखबार छाप देंगे।'

शनिवार, 8 अगस्त 2009

एक सच यह भी है ...

देश आजाद है लेकिन देशवासी नहीं


हमारा देश आज कितना आगे निकल बुलंदियों को छू रहा है. देश में बड़े-बड़े औद्योगिक कारखाने, जो अपने उत्पादन का लोहा पूरी दुनिया से मनवा रहे हैं. देशवासियों को हर तरह कि सुविधा मुहैया करवाई जा रही है. यहाँ तक कि देश में छठा वेतन आयोग भी लागू हो जाने से देशवासियों का बहुत भला हुआ. सब खुश हैं. सब तरक्की के रस्ते कि ओर बढ़ रहे हैं. इतना सब कुछ होने के बाद एक सच यह भी है कि देश में करोड़ों लोग आज भी तरक्की से दूर पड़े, पेट में भूख लिए, क्षेत्रवाद, जातिवाद गरीबी का दंश झेलते हुए उम्मीद कर रहे हैं कि उन्हें वास्तविक आजादी मिलेगी और न्याय उनके दरवाजे तक भी पहुचेगा। इसके लिये कथनी और करनी के अंतर को दूर करना होगा। स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। जातिधर्म के दंभ को त्याग कर सिर्फ भारतीय बनना होगा।
हम देश की अर्थ व्यवस्था पर नजर डालें तो दृष्टिगोचर होता है कि यह कुछ चंद लोगों की मुटठी में कैद है। आम आदमी आश्वासन की खुराक पर जी रहा है। शहीदों के सपने बिखर चुके हैं। सत्ता अपराधियों के कब्जे में जा रही है। विधायिका एवं कार्यपालिका पर अंकुश कसने के लिये न्याय पालिका तो है पर न्याय आज इतना महंगा हो गया है कि आम जनता को उपलब्ध नहीं है। नतीजन वह शोषण अत्याचार सहने को मजबूर हैं। पत्रकारिता से उम्मीद थी, अभी भी है और रहेगी भी, पर उसको लेकर भी रह-रहकर उठते सवाल जन समान्य में और अधिक भय पैदा कर देते हैं। भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार के समंदर से समाजवाद रूपी गंगा के निकलने की उम्मीद थी पर वह भी उम्मीद रौंंदी जा चुकी है। आज आजादी के 62 बरस बाद भी समानता का दीप नहीं जल सका।
जहां तक दलित की प्रगति का सवाल है तो आजादी के बासठ साल बाद भी दलित समाज अपनी तरक्की से बहुत दूर है। सचमुच यह गंभीर चिंतन का विषय है। देश की बड़ी जनसंख्या के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार लोकतंत्र पर आघात है। दुख की बात यह है कि इसमें वो भी शामिल हैं जो खुद दलित हैं और उनकी गरीबी और लाचारी से मुक्ति की लड़ाई लडऩे के दावे करते घूम रहे हैं। आजादी के असली सपने को पूरा करना है तो निजी स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। दायित्वों एवं देश धर्म पर खरा उतरना होगा। यह उनके लिए विशेष रूप से है जो दलित समाज में जन्मे हैं और अपने से निचले वर्ग की उपेक्षा करते हैं। उन्हें समानता के भाव को प्राथमिकता देकर विकसित करना होगा। जातिवाद खत्म करना होगा। गरीबों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराना होगा। शिक्षा एवं समुचित रोजगार के बन्दोबस्त करने होंगे। दलित वंचितों शिक्षितों को सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थानों में प्राथमिकता के आधार पर रोजगार उपलब्ध कराना होगा।
स्वामी विवेकानन्द ने भी आमजनों की दुर्दशा देखकर पीड़ा का एहसास किया था। उन्ही के शब्दों में-जब मैं गरीबों के बारे में सोचता हूं तो मेरा हृदय पीड़ा से कराह उठता है। बचने या ऊपर उठने का उनके पास कोई अवसर नहीं है। वे लोग हर दिन नीचे और नीचे धंसते जाते हैं। वे समाज के वारों को निरंतर झेलते जाते हैं। वे यह भी नहीं जानते कि उन पर कौन वार कर रहा है, कहां से कर रहा है। वे यह भी भूल चुके हैं कि वे स्वयं भी मनुष्य हैं। इन सबका परिणाम है गुलामी। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के इतने बरसों के बाद भी गरीब वंचित खेतिहर भूमिहीन मजदूर वही जहर आज भी पीने को मजबूर है। हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज भी देश में राष्ट्र क्या है एक दिशाहीन मुद्दा बना हुआ है। यहां के लोग जाति धर्म के नाम से जाने पहचाने जाते हैं।

देश तो बनता है संस्कृति ,परम्पराओं और देश के निवासियों की असंदिग्ध निष्ठा से, पर देश के निवासियों में सर्वप्रथम निष्ठा तो जाति धर्म के प्रति प्रतीत होती है। सांस इस देश में भरते है गुणगान विदेश का करते हैं। ये कैसा राष्ट्र प्रेम है? इस मनोदशा को बदलना होगा समृद्धशाली और सामर्थवान भारत की रचना करनी होगी। स्वतंत्र भारत के 62 बरसों के बाद भी गौरवमयी इतिहास पर खून के धब्बे आज भी विराजमान हैं, कुछ कराहते हैं, आज भी जीवनयापन के साथ आत्म सम्मान के लिये संघर्षरत हैं, जिनकी कराह देश की नींद में दाखिल है परन्तु सत्ताधीशों की नींद नहीं टूट रही है। बांसठ साल की आजादी के बाद भी सुलगते इन सवालों का समाधान खोजकर लोकतंत्र के पहरेदार अपने दायित्वों पर खरे उतरेगे और आम जनता आश्वासनों की आक्सीजन पर नहीं बल्कि विकास की राह पर दौड़ेगी। इसी आशा पर हम जैसे माध्यम श्रेणी के लोगों को जीना सीख लेना चाहिए। हम जैसे माध्यम श्रेणी के लोगों के पास सिर्फ सपने देखने के अलावा कोई रास्ता फिलहाल तो नहीं नजर आता है। देश आजाद हो गया लेकिन लगभग ७५ % देशवादी अभी भी अपनी आजादी के लिये तरह रहे हैं। पता नहीं वह दिन कब आयेगा...?

क्या यही आजादी है...

'आजादी' यह रामुओं के लिये नहीं है...

आजादी! आखिर क्या है आजादी? कहां है आजादी? किसके पास है आजादी? कौन है आजादी? रामू जैसे कई लोग जानते ही नहीं कि 'आजादी' क्या है। और जाने भी क्यों! उनको तो अपनी मजबूरी, अपनी मजदूरी से ही समय नहीं मिलता है। रामू जैसे लोगों को अपने हक की बात करने तक का अधिकार इस आजादी में नहीं हासिल है। बात कहने का क्या उन्हों तो सोचने का भी हक नहीं है। अगर वे लोग ऐसा करते या करने की सोचते भी हैं तो हमारे आजाद भारत के आजाद पुलिस के सिपाही जेल में बन्द कर देते हैं और कोई ज्यादा बोलता है तो उसे दुनिया से ही आजाद कर देते हैं।
रामू जैसे लोगों को इस दुनिया में रहने से आजादी नहीं बल्कि इस दुनिया को छोडऩे से आजादी नसीब होती है। ऐसे ही एक रामू अपने बच्चों को लिये हुए जा रहा है। तभी एक जानने वाले ने कहा कि कहां जा रहे हो रामू, इन बच्चों को लिये। रामू बोला-'पंद्रह अगस्त के लिए तिरंगे झंडे की जिद कर रहे हैं। दुकान पर कागज वाला झंडा दिलाने जा रहा हूं। रामू अपने बच्चों को अलग-अलग झंडे दिला लाया, पूछा तो बताया कि दो रुपए का एक मिला है। तिरंगे झंडे और देश की चाह के सामने उस समय इस गरीब की गरीबी का चेहरे पर कोई भाव नहीं था। लेकिन हम जैसों के लिए वह एक विचार जरूर छोड़ गया कि आजादी से आज तक बहुत कुछ बदला लेकिन रामू के जैसे लोग वहीं के वहीं हैं। उनको अपनी गरीबी से आज़ादी का नंबर अभी तक नहीं आया? स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस इनके समारोहों में रामू जैसे गरीबों और उनके बच्चों के ही हाथों में खुशी से झंडे लहराते हुए समारोह की शोभा बढ़ाते दिखाई देते हैं। कुर्सियां औरों के लिए ही लगाई जाती हैं। उस दिन के जश्न की असली शोभा वहीं होते हैं लेकिन वास्तव में वह जश्न इनके लिए नहीं होता। उस दिन भी अमीरी-गरीबी में बड़ा ही भेदभाव। इस मौके पर बहुत सारे फल- मिठाइयां तो आते हैं लेकिन लेकिन वह सिर्फ उनके लिये होते हैं जो कि मंच पर पड़े सोफे पर बैठे होते हैं और सामने की कुर्सियों पर। रामू के जैसे लोगों के बच्चों के लिये नहीं। उनको अपने बच्चों के लिए रास्ते से ही लड्डू या केले जरूर खरीदकर देने होते हैं नहीं तो वह अपने बच्चों के इस सवाल का जवाब नहीं दे पाएंगे कि जब वहां सबको लड्डू व फल मिल रहे थे तो हमें क्यों नहीं मिले?
हर साल स्वतंत्रता के जश्न के ऐसे आयोजनों की 15 अगस्त या 26 जनवरी को धूम तो दिखाई पड़ती है, लेकिन वह वास्तविक धूम नहीं होती। वह एक प्रकार की रस्मअदायगी सी दिखाई पड़ती है। गंधाते हुए भाषण और सड़े हुए फल, यही सच्चाई है इन आयोजनों की। इसलिए ऐसे आयोजनो का आंतरिक भाव लुप्त होता जा रहा है। सच्ची अनुभूति तो वह होती हैं जो सर्वत्र क्षण महसूस की जा सके। स्वतंत्रता का अनुभव आजादी के इतने सालों के बाद भी आम गरीब शोषित पीडि़त जनता को तो नहीं हुआ है। हो भी कैसे सकता हैं? कितने रामू जैसे गरीब लोग आज भी रोटी-रोजी की तलाश में दर-दर भटकते हैं। जातिवाद, धर्मवाद, महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, सामाजिक, आर्थिक कुव्यवस्था जैसी मुश्किलों से वे वैसे ही जूझ रहे हैं। जब तक ये जूझते रहेंगे तब तक ये खुद को कैसे स्वतंत्र मान लें?
आज के प्रगतिशील युग में भी सामाजिक बुराइयां शोषित पीडि़त वंचित जनता के जीवन में काफी दुखदायी हैं। सही मायने में यही बुराइयां ही असली आजादी का एहसास नहीं होने देती हैं। सबको आजादी का एहसास होगा लेकिन उसके लिये समानता के भाव को विकसित करना होगा। जातिवाद खत्म करना होगा। रामू जैसे गरीबों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराने होंगे। शिक्षा एवं समुचित रोजगार के बंदोबस्त करने होंगे। भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को खेती की जमीन देनी होगी। सत्ताधारियों को बिना किसी भेदभाव के आमजनों की समस्यों का निराकरण करना होगा। तभी आम आदमी की आंखों में चमक आ सकेगी। हमारे देश की आधी से ज्यादा जनता झोपडियों में बसती है। ये लोग युग-युग से चुपचाप अपना काम करते आ रहे हैं। ये ही इस देश की समस्त संपदा के असली उत्पादक हैं। दुर्भाग्यवश आजाद देश में यही लोग शोषण उत्पीडऩ के शिकार हैं और स्वतंत्रता से बहुत दूर पड़े हुए है। इनकी चौखटों पर आज भी भूख लाचारी का रोज ही ताडंव होता है।
जिस देश के पढ़े लिखे युवक दुनियां को अपने ज्ञान का लोहा मनवा रहे हैं, जिस देश में उच्च पदों से लेकर अतिनिम्न पदों के लिये शैक्षणिक योग्यता निर्धारित है और उनके रिटायरमेंट की अवधि तक निर्धारित है उस देश में लोकतंत्र के नाम पर अल्पशिक्षित लोग देश के सर्वोच्च पदों तक पहुंच जा रहे हैं। सासंद विधायक बन रहे हैं, कब्र में पैर लटकाये हुए भी मंत्री तक के पदों पर बैठे हैं। क्या यह सर्वसमाज की शिक्षित प्रतिभाओं के साथ छल नहीं? इस अन्याय को न्याय का रूप कौन देगा? क्योंकि इस प्रक्रिया में बदलाव सत्तासुख से विमुख कर सकता है और मरने के बाद राजकीय सम्मान के साथ दाह संस्कार की सुविधा में भी अड़चने खड़ी हो सकती हैं।

सोमवार, 3 अगस्त 2009

सरकार जिम्मेदार पर विभाग नहीं?


आम जनता की पहुंच से मीलों दूर 'मिड डे मिल'

परवाह तो अपनी है मासूमों की किसे है...


मिड डे मिल योजना सरकार की एक अति सराहनीय योजना एवं बहुउद्देशीय योजना है। लेकिन किसी योजना का लाभ उस अमुक व्यक्ति को मिल रहा है जिसको मिलना चाहिये, यह भी ध्यान में रखने का काम सरकारी विभाग के कर्मचारियों का है। उक्त योजना पर अमल हो रहा है या नहीं, कोई इसमें कोताई तो नहीं कर रहा है, ये सब देखना और इसमें हो रही धोखाधड़ी को रोकना सरकारी विभाग के कर्मचारियों की जिम्मेदारी है? लेकिन ऐसा नहीं कि यह सिर्फ सरकारी विभाग का ही काम है आम जनता को भी इसके काम में हो रही कोताही को रोकने का और उसकी लिखित शिकायत करने का अधिकार प्राप्त है।
1995 में मध्यान्ह भोजन योजना प्रारम्भ हुयी थी। उस समय प्रत्येक छात्र को इस योजना के अंतर्गत हर माह तीन किलोग्राम गेहूं या चावल उपलब्ध कराया जाता था। केवल खाद्यान्न उपलब्ध कराये जाने से बच्चों का स्वास्थ्य एवं उनकी स्कूल में उपस्थिति पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा।
बच्चों को इस योजनान्तर्गत विद्यालयों में मध्यावकाश में स्वादिष्ट एवं रूचिकर भोजन प्रदान किया जाता है। इससे न केवल छात्रों के स्वास्थ्य में वृद्धि होती है अपितु वह मन लगाकर शिक्षा ग्रहण भी कर पाते हैं। इससे बीच में ही विद्यालय छोडऩे (ड्राप आउट) की स्थिति में भी सुधार आया है। भारत सरकार द्वारा निर्देशित किया गया था कि बच्चों को समस्त प्रदेशों में मध्यान्ह अवकाश में पका-पकाया भोजन उपलब्ध कराया जाये।
कतिपय कारणों से इस योजना के अंतर्गत पका-पकाया भोजन उत्तर प्रदेश में सितम्बर, 2004 तक नहीं दिया जा सका। विद्यालयों में पका-पकाया भोजन उपलब्ध कराने के सम्बन्ध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका संख्या 196/2001 पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम् यूनियन आफ इण्डिया एवं अन्य में दिनांक 28-11-2001 को भारत सरकार को निर्देशित किया था कि 3 माह के अन्दर सरकार प्रत्येक राजकीय एवं राज्य सरकार से सहायता प्राप्त प्राइमरी विद्यालयों में पका पकाया भोजन उपलब्ध कराये। इस भोजन में 300 कैलोरी ऊर्जा तथा 8-12 ग्राम प्रोटीन उपलब्ध होगा और यह भोजन वर्ष में कम से कम 200 दिनों तक उपलब्ध कराया जायेगा। माननीय न्यायालय ने यह भी निर्देशित किया है कि योजना के अंतर्गत औसतन अच्छी गुणवत्ता का खाद्यान्न उपलब्ध कराया जायेगा। उत्तर- प्रदेश में दिनांक 01 सितम्बर, 2004 से पका-पकाया भोजन प्राथमिक विद्यालयों में उपलब्ध कराने की योजना आरम्भ कर दी गयी है। वर्तमान में भारत सरकार द्वारा मानकों में परिवर्तन करते हुए यह निर्धारित किया गया है कि उपलब्ध कराये जा रहे भोजन में कम से कम 450 कैलोरी ऊर्जा 12 ग्राम प्रोटीन उपलब्ध हो। मध्यान्ह भोजन योजना कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्य प्रदेश सरकार शिक्षा की विभिन्न योजनाओं में अत्यधिक पूंजी निवेश कर रही है। इस पूंजी निवेश का पूर्ण लाभ तभी प्राप्त होगा जब बच्चे कुपोषण से मुक्त होकर अपनी पूर्ण क्षमता से शिक्षा निर्बाध रूप से ग्रहण करते रहें। मध्यान्ह भोजन योजना इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण कड़ी है। सरकार का मानना है कि इस योजना के माध्यम से शिक्षा के सार्वभौमीकरण के निम्न लक्ष्यों की प्राप्ति होगी-

  1. प्राथमिक कक्षाओं के नामांकन में वृद्धि।
  2. छात्रों को स्कूल में पूरे समय रोके रखना तथा विद्यालय छोडऩे की प्रवृत्ति (ड्राप आउट) में कमी।
  3. निर्बल आय वर्ग के बच्चों में शिक्षा ग्रहण करने की क्षमता विकसित करना।
  4. छात्रों को पौष्टिक आहार प्रदान करना।
  5. विद्यालय में सभी जाति एवं धर्म के छात्र-छात्राओं को एक स्थान पर भोजन उपलब्ध करा कर उनके मध्य सामाजिक सौहार्द, एकता एवं परस्पर भाई-चारे की भावना जागृत करना।

सवालों के घेरे में मिड डे मिल



भारत सरकार और प्रदेश सरकार के समवेत प्रयास से गरीब बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन योजना 15 अगस्त 1955 को लागू की गई थी जिसमें मुख्य भूमिका केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की रही। इसके अंतर्गत कक्षा 1 से कक्षा 5 तक के सभी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को दोपहर में भोजन देने का प्रावधान किया गया था, चाहे संबंधित विद्यालय राज्य सरकार, परिषद अथवा अन्य सरकारी निकायों द्वारा संपोषित हो। सरकार ने मिड डे मिल के लिए काफी धन आवंटित किए और विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से प्राथमिक और अब कई माध्यमिक विद्यालयों में इसको लागू किया। कागजों में भले ही योजना सफल बताई जाए लेकिन वास्तविकता के धरातल पर आते ही इसके इर्द-गिर्द अनेक सवाल खड़े हो जाते हैं। विभिन्न रिपोर्ट बताते हैं कि जिन इलाकों में इस योजना की सबसे अधिक जरूरत थीं, उन्हीं इलाकों में यह धराशायी हो रही है, वहीं सबसे ज्यादा अनियमितता है। बच्चों को खाना नहीं मिल रहा है, लेकिन इसके लिए दोषी कौन है? सरकार सरकारी विभाग के वे लोग जिनको इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है।
विभागीय कर्मचारियों की लापरवाही, कामचोरी और रिश्वतखोरी के चलते इस योजना का लाभ गरीब मासूम बच्चों को मिल पायेगा? इस विषय पर कुछ भी कहना मुनासिब नहीं होगा।
इस सरकारी तंत्र की गलतियों का हरजाना मासूम बच्चों को अपनी जान गंवा कर भरना होता है। उनके लिये जो भोजन पकाया जाता है उसमें पौष्टिकता स्वच्छता का अभाव होता है। कई बार तो सुनने में आता है कि बच्चों के भोजन में कीड़े, कंकड़ छिपकली तक पायी गयीं। अब ऐसे भोजन को ग्रहण करने वाले बच्चे मौत की गोद में नहीं जायेंगे तो कहां जायेंगे? जिनको समय पर इलाज की सुविधा उपलब्ध हो जाती है वह कभी-कभी बच भी जाते हैं। लेकिन क्या यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा, इस पर क्या कभी कोई सरकारी विभाग ध्यान नहीं देगा? इस सम्बन्ध में सभी खामोश हैं।
अभी पिछले दिनों पिठोरिया थाना क्षेत्र के कोल्हया कनान्डू ग्राम स्थित राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय में मिड डे मील के लिए पकी गरम दाल में गिरने से 7 वर्षीय बच्ची की मौत हो गयी। अफसरी परबीन नामक इस छात्रा के परिजनों ने बिना पोस्टमार्टम के बच्ची के शव को मंगलवार को दफना दिया। मामले में प्राथमिकी भी दर्ज नहीं की गयी। बाद में ग्रामीणों के उत्तेजित होने पर प्रशासन ने चुस्ती दिखाई। शिक्षकों को निलम्बन कर दिया गया। विद्यालयों एवं शिक्षा विभाग के कर्मचारियों के लापरवाही के कारण झारखंड में लगातार ऐसी घटनाएं कभी भोजन में छिपकली गिरना, तो कभी साँप एंव दूसरी जहरीली वस्तुओं का मिलना यहाँ आम बात हो गयी है। जिस कारण अनेक बच्चे बीमार हो गये और कइयों ने तो अपनी जान से भी हाथ धो दिया। यह हाल सिर्फ झारखण्ड का नहीं बल्कि कई ऐसी क्षेत्र हैं जिनमें ऐसी घटनाएं आये दिन होती रहती हैं। प्रशासन है कि चुप्पी साधे बैठा है। वह इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं देता है।
दरअसल, मिड डे मिल योजना को लागू करना सरकार की प्राथमिकता में नहीं था। मगर, स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा अत्यधिक जोर दिए जाने पार सरकार को इसे लागू करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
देश में सबसे पहले यह तमिलनाडु में लागू किया गया। इसके पीछे मकसद यह था कि जिन बच्चों को खाना नसीब नहीं हो पाता है, वे खाना के नाम पर ही सही स्कूलों में आएंगे और यदि आयेंगे तो उन्हें शिक्षा जरूर मिल जाएगी। कारण, देश में लाखों ऐसे परिवार हैं जो पेट की क्षुधा शांत करने के चक्कर में बच्चों को शिक्षित नहीं कर पाते हैं। लेकिन वर्तमान में यह योजना सुचारू रूप से लागू नहीं हो पा रही है।
गाँव देहात एवं गरीब बच्चों को शिक्षा की ओर आकर्षित करने और उन्हें सहायता प्राप्त करने का यह एक विवेकपूर्ण एवं सराहनीय प्रयास है, परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि इस योजना का शरारती तत्वों के द्वारा अनुचित उपयोग किया जाने लगा। झारखंड एवं बिहार जैसे भ्रष्ट राज्यों में इस योजना हेतु आवंटित राशि का बंदरबाँट शुरू हो गया।
स्वयंसेवी संस्था 'मंथन' के द्वारा कक्षा पांच से ऊपर के बच्चों पर किए गए सर्वेक्षण में यह देखने में आया है कि स्कूल के अधिकतर बच्चे सुबह का नाश्ता करके नहीं आते। वे बच्चे भूखे क्यों आते हैं, इसका कारण पूछने पर अधिकांश बच्चों ने इसका कारण गरीबी और परिवार की आर्थिक तंगी बताया।
ग्राम स्वराज अभियान द्वारा किए गए शोध के अनुसार पूरे देश में लगभग 20 प्रतिशत बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जो बच्चे स्कूल जाते हैं और जिन्हें मिड डे मिल योजना का लाभ मिल जाता है उसमें अल्पसंख्यक, दलित एवं आदिवासी बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। सर्वेक्षण में पाया गया कि 7 प्रतिशत स्कूलों में आपसी मतभेद योजना के सुचारू रूप ने चलने का कारण था, वहीं 9 प्रतिशत स्कूलों में शिक्षक ही उपलब्ध नहीं थे।
खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के आंकड़ों की जुबानी बात की जाए तो भी यही परिलक्षित होता है कि मिड डे मिल योजना के मद में सरकार द्वारा जितना अनाज आवंटित हुआ था उतना खर्च नहीं हो पाया। सरकारी गोदाम में लाखों टन अनाज धरे रह गए।
विभाग द्वारा साल 2001-02 में 18.67 लाख टन चावल और 9.96 टन गेहूं आवंटित था जबकि खर्च हुए महज 13.48 लाख टन चावल और 7.28 टन गेहूं इसी प्रकार साल 2002-03 में 18.84 लाख टन चावल और 9.40 टन गेहूं के एवज में 13.75 लाख टन चावल और 7.45 टन गेहूं, साल 2003-04 में 17.72 लाख टन चावल और 9.08 टन गेहूं के एवज में 13.49 लाख टन चावल और 7.20 टन गेहूं, साल 2004-05 में 20.14 लाख टन चावल और 7.35 टन गेहूं के एवज में 15.41 लाख टन चावल और 5.92 टन गेहूं, साल 2005-06 में 17.78 लाख टन चावल और 4.72 टन गेहूं के एवज में 13.64 लाख टन चावल और 3.63 टन गेहूं और साल 2006-07 (जनवरी तक ) में 17.17 लाख टन चावल और 4.17 टन गेहूं के एवज में 10.48 लाख टन चावल और 2.85 टन गेहूं खर्च हुए हैं।

इस प्रकार सरकार द्वारा जितना अनाज आवंटित किया जाता है, संबंधित विभागीय कर्मचारी उसका सदुपयोग नहीं कर रहे हैं। सर्वशिक्षा अभियान की तरह यह भी विभागीय अकर्मण्यता और उपेक्षा का शिकार होता जा रहा है। जिस पर अभी तक किसी भी विभागीय अधिकारी का ध्यान नहीं गया है।
ऐसे तो मिड डे मिल के संचालन की पूरी जिम्मेदारी ग्राम शिक्षा समिति के अध्यक्ष माता समिति की संयोजिका की होती है। लेकिन हाल के दिनों में मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी के कारण विभाग का कोड़ा इस कदर हेडमास्टरों एवं पारा शिक्षकों पर बरसा है कि सबने मध्याह्न भोजन को दुरुस्त करने की ठान ली है। विद्यालय के बाकी काम-काज भले ही हाशिये पर चला जाय लेकिन मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए। प्रधानाध्यापकों ने इसके लिए बकायदे एक शिक्षक को प्रतिनियुक्त कर दिया है। खाना बनने से लेकर बंटने तक उक्त शिक्षक अध्यापन से दूर रहते हैं। यदि देखा जाय तो एक शिक्षक को 20 से 25 हजार रुपए के बीच प्राप्त होते हैं। ऐसे में मध्याह्न भोजन की निगरानी में सरकार की मोटी रकम जा रही है। शिक्षक आते हैं पढ़ाने लेकिन उनका ध्यान मध्याह्न भोजन में ही लगा रहता है। अब सरकार तय करे कि क्या बच्चों का पेट भरना ही जरूरी है या बच्चे को एक कुशल नागरिक भी बनाना है। यदि सफल शिक्षित नागरिक बनाना है तो शिक्षकों को एमडीएम से अलग रखने की मांग को बार-बार हवा में क्यों उड़ाया जा रहा है।
सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मिल आदि जैसी कई योजनाओं के विज्ञापन पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है। लेकिन विभागीय कर्मचारी जिनको यह कार्य जिम्मेदारी से पूर्ण करने के लिये सौंपा गया है वह ऐसी बचकानी और लापरवाही पूर्ण हड़कतें करते हैं कि बच्चें स्कूलों में जाने से भी डरने लगें हैं। बच्चों के माता-पिता भी यह सोच रहे हैं कि उनका बच्चा स्कूल जा रहा है, पता नहीं सकुशल घर लौटेगा कि नहीं। ऐसे अकर्मन्य लापरवाह लोगों के प्रति सरकार को कठोर से कठोर कदम उठाना चाहिए, ताकि सरकार की ऐसी योजनाओं का सदुपयोग हो सके और शिक्षा विभाग की गुणवत्ता में सुधार आये।

जरा इन बातों पर भी दीजिये ध्यान...
  1. मिड डे मिल योजना के अन्तर्गत जो खाना पकाया फिर उसको बच्चों को वितरित किया जाता है उसकी गुणवत्ता तथा पौष्टिकता पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
  2. खाना पकाने और परोसने वाले क्षेत्र में सफाई सम्बन्धी कड़े नियम लागू किए जाने चाहिए।
  3. पिछले दिन के बचे हुए खाने को अगले दिन परोसने पर नियंत्रण होना चाहिए। (स्वास्थ्यकर आहार को ज्यादा समय नही रखा जा सकता, खासकर जहां मौसम ज्यादा गर्म हो।)
  4. वसा तेलों की गुणवत्ता की निगरानी की जानी चाहिए ट्रांसफैटी एसिड्स के इस्तेमाल पर रोक लगा देनी चाहिए।
  5. जहां कहीं भी संभव हो साबुत अनाज और दालों का मिड डे मील्स में इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
  6. मौसमी सस्ते और बिना कटे फल भी दिए जा सकते हैं।
  7. खाने को तैयार करते समय रंगों और एडिटिव के इस्तेमाल पर रोक होनी चाहिए।
  8. खाना बनाने के लिए आयोडीन युक्त नमक का इस्तेमाल होना चाहिए।
  9. खाने में डालने के लिए स्थानीय तौर पर उपलब्ध सस्ती गिरियों (बिना नमक लगी) फलों के बीजों का इस्तेमाल किया जा सकता है। (मूंगफली, खरबूजे, तरबूज के बीज, अखरोट आदि)
  10. अगर किसी क्षेत्र विशेष की ऐसी मांग हो तो आहार में फालिक एसिड और लौह तत्वों को शामिल किया जा सकता है।

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

बुजुर्गों के साथ ऐसा क्यों होता है...?


आख़िर कब समझेंगे बच्चे अपनी जिम्मेदारियां ...?

मां-बाप तो जिम्मेदार होते हैं लेकिन क्या उनके बच्चे भी उनके प्रति जिम्मेदार होते हैं...? यह सवाल हम सबको अपने आप से करना चाहिये। मां-बाप अपने बच्चे को बचपन से ही अच्छी परवरिश देते हैं, अच्छा माहौल देते हैं, अच्छी शिक्षा देते हैं, उनके रहन-सहन का अच्छा इन्तजाम करते हैं ताकि उनको किसी भी तरह की कोई कठिनाई न हो। उनको पढ़ा-लिखा कर इस लायक बनाते हैं कि वह समाज में सर उठा कर चल सकें। समाज में नाम, इज्जत व सम्मान पा सकें। मां-बाप यह कभी भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे को कोई परेशानी हो। वह उसकी हर वस्तु की पूर्ति करने की कोशिश करते हैं। अपना तन-मन-धन व रुपया-पैसा सब कुछ अपने बच्चों के लिये समर्पित कर देते हैं।
यहां तक कि अपने कलेजे के टुकड़े को अपने से दूर किसी अच्छी जगह पढऩे-लिखने को भेज देते हैं या फिर किसी अच्छी नौकरी के लिये अपने से दूर जाने देते हैं लेकिन क्या वे अपने बच्चों के बिना एक पल भी रह सकते हैं...? शायद नहीं। फिर भी वे अपने बच्चों को अपने से दूर उनका सुनहरा भविष्य सुधारने के लिये अपनी ममता का गला घोंट देते हैं। बच्चों के सामने तो झूंठी हंसी का नाटक करते हैं और अन्दर ही अन्दर आंसू को समेट कर उन्हें एक कड़ुवे अनुभव की तरह संजो लेते हैं। उनकी याद में सब कुछ भूल जाते हैं दिन-रात अपने बच्चों की भलाई की कामना करता हैं। लेकिन क्या बच्चे भी अपने मां-बाप का इसी सिद्दत के साथ उनका ख्याल रखने की कभी सोचते हैं शायद नहीं...। हां, लेकिन अपने बच्चों से अपनी सेवा की उम्मीद जरूर करते हैं।
आज अगर कोई नौवजवान अपने बूढ़े मां-बाप की सेवा नहीं करेगा, उन्हें बोझ समझकर अपने से दूर कर देगा तो क्या कल उनके बच्चे उनके साथ ऐसा नहीं करेंगे...? बिल्कुल करेंगे। क्योंकि किसी भी बच्चे में उसकी आदतें, उसके संस्कार उसके माता-पिता से आते हैं। जैसा मां-बाप को करते वे देखते हैं वेसा ही वह आगे चलकर अपने मां-बाप के साथ करते हैं।
क्या आज के बच्चे कभी अपने मां-बाप के बारे में यह सोचते हैं कि हमारे माता-पिता ने हमको इतने कष्ट सहकर हमको अच्छा पालन-पोषण दिया और इस लायक बनाया कि आज हम समाज में इज्जत से जी रहे हैं। हमको उनका भी ध्यान रखना चाहिए।
जब हमारे माता-पिता बूढ़े होते हैं, तो उनको मदद की जरूरत होती है। जब यह होता है, कई लोग सोचते हैं कि बच्चे को माता-पिता के खयाल रखना चाहिए। और कई लोग सोचते हैं कि माता-पिता को अपने आप पर ख्याल खुद रखना चाहिए। लेकिन ऐसा सोचना गलत है क्योंकि जब मँा-बाप बूढ़े होते हैं, तो उनकी सारी जिम्मेदारी उनके बच्चों की होती है। वह यह भूल जाते हैं कि मेरे माता-पिता ने सारी जिन्दगी हमारा ख्याल रखा है अच्छी परवरिश दी है। कभी कोई कमी महसूस नहीं होने दी है। जब हमारे मां-बाप बूढ़े होते हैं तो हमें भी उनकी मदद करनी चाहिए और उनको प्यार देना चाहिए। अपने सारे काम छोड़कर माता-पिता की देख-रेख करना चाहिए।
आपने श्रवण कुमार का नाम तो सुना ही होगा ,वह अपने माता-पिता का एकलौता सुपुत्र था। श्रवण कुमार के माता-पिता दोनो अन्धे थे। वो श्रवण कुमार से बहुत प्यार करते थे और श्रवण कुमार भी अपने माता-पिता की हर आज्ञा का खुशी-खुशी पालन करता था। एक बार श्रवण कुमार से उसके माता-पिता ने कहा कि हमारी सभी तीर्थ-स्थानों की यात्रा करने की तमन्ना है। तब आवाजाई के साधन तो थे नहीं और माता-पिता दोनों ही देख नहीं सकते थे। लेकिन श्रवण कुमार तो अपने माता-पिता की इच्छा को पूरा करना चाहता था तो उसने एक वन्झली बनाई और उसमे एक तरफ अपनी माता और दूसरी तरफ अपने पिता को बिठा कर निकल पडा तीर्थ-स्थानों की यात्रा पर उसने अपने माता-पिता को कन्धों पर उठा कर बहुत सारे तीर्थ-स्थानों की यात्रा कराई और एक दिन जब चलते-चलते उसके माता-पिता को प्यास लगी तो वह माता पिता को उनको एक जगह पर बिठा कर पास मे बहती नदी से पानी लेने चला गया जब वह नदी से पानी भर रहा था तो राजा दशरथ ने दूर से आवाज सुनी और कोई जंगली जानवर समझ कर तीर चला दिया और वह तीर श्रवण कुमार को लगा। उसने वहीं दम तोड़ दिया और जब उसकी मृत्यु का उसके माता-पिता को पता चला तो वह अपने पुत्र का वियोग नहीं सह पाए और उन्होंने भी वहीं अपने प्राण त्याग दिए यह था उनका आपस का प्यार, जो आज-कल समाज में कभी भी देखने को नहीं मिलता है।
श्री रामचन्द्र जी भी अपने माता-पिता से बहुत प्यार करते थे। जब उनके पिता राजा दशरथ से उनकी छोटी माँ कैकई ने राम को वन भेजने का वचन माँगा तो श्री राम ने अपने पिता का माँ कैकई को दिया हुआ वचन पूरा करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास सहर्ष स्वीकार कर लिया। क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि उनके पिता पर वचन ना पूरा करने का कलंक लग जाए और खुशी खुशी चौदह वर्ष के लिए वन को चले गए और उनके पिता राजा दशरथ भी अपने सुपुत्र श्री राम से इतना प्यार करते थे कि वह राम के वन जाने की बात सह ना पाए और वहीं पर अपने प्राण त्याग दिए। यह उनका अथाह प्यार ही था।
माता पिता और उसके पुत्र के प्रेम का एक और प्रमाण यह भी है कि श्री कृष्ण का जब जन्म हुआ तो उसके माता-पिता जेल मे थे। क्योंकि श्री कृष्ण के मामा कंस जानते थे कि उनका बेटा उसको मारने वाला होगा। कन्स चाह्ता था कि जैसे ही श्री-कृष्ण का जन्म होगा वह उसे मार देगा इस तरह श्री-कृष्ण उसे कभी भी मार नहीं सकेगा लेकिन कुदरत को तो कुछ और ही मन्जूर था। जैसे ही उनका जन्म हुआ जेल अपने आप खुल गई और श्री कृष्ण के पिता रात के अन्धेरे मे सबसे छुप-छुपा कर गोकुल नन्द और यशोदा के घर छोड आए और अपने पुत्र की रक्षा की और श्री कृष्ण को बड़े होकर जैसे ही अपने माता-पिता के बारे मे पता चला तो उनको कन्स की कैद से मुक्त करवाने के लिए उन्होंने केवल ग्यारह वर्ष की आयु मे ही कन्स का वध करके अपने माता-पिता वासुदेव और देवकी को आजाद करवाया। यह माता-पिता का अपने बेटे के लिए प्यार ही था कि वह बहुत वर्षो तक जेल मे रहे लेकिन फिर भी अपने पुत्र की रक्षा की और श्री-कृष्ण का भी अपने माता-पिता से सच्चा प्यार ही था जो उन्होंने कन्स का वध करके उनको आजाद करवाया।
आज के समय में ऐसा नहीं देखा जाता। माता पिता तो अपने बच्चों के लिये अपना सब कुछ कुर्बान कर उसके खुश रहने की कामना करते हैं लेकिन उनके बच्चे सिर्फ और सिर्फ अपने लिये ही सोचते हैं और जो भी करते हैं वो भी अपने लिये ही करते हैं।
आज के समय में लगभग हर संतान का अपने माता पिता से मतभेद होना देखा जा सकता है। इसका कारण अक्सर समय का बदलना होता है या माता पिता का अनुभव। यदि संतान बाइक लेना चाहता तो पिता स्कूटर दिलाने की जिद पकड़ लेते हैं नजरिया दोनों का एक होता है लेकिन विचार भिन्न। बेटा सोचता है बाइक लेकर फर्राटे से दौडाउंगा और पिता सोचता है गाडी पंचर हो गई तो स्टेपनी लगाकर आगे बढा जा सकता है। अगर इस तरह के पारिवारिक झगडे हों तो कोई बात नहीं लेकिन मामला अगर सामाजिक दायरे से बाहर का हो तो चाहें सही हो या गलत मैं सारा दोष संतान को ही दूंगा। क्योंकि जो अपने जनक को नहीं पूजेगा उसे न्याय मांगने का कोई हक नहीं है।
आखिर मां-बात भी इन्सान ही हैं, पहले सबकी वरीयताएं पता चले फिर कुछ आगे सोचो नहीं तो कभी-कभी आदर्श अन्याय का कारण बन जाते है। फिर भी माता पिता के साथ लड़ाई नहीं कर सकते, उन्होंने जन्म दिया है, पर ईश्वर के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी है अत: विवेक और धर्म से काम लेना होगा ।
माता-पिता चाहे गोर हो या काले, अच्छे हो या बुरे, सही हो या ग़लत, सुंदर हो बदसूरत, स्वस्थ हो या बीमार-चाहे जैसे भी हों वो माता-पिता हैं। उनकी सेवा करनी चाहिये। माता-पिता से लड़ाई कराने वाले को माफ नहीं करना चाहिये और चुप भी नहीं बैठना चाहिये।


बड़े-बुजुर्गों का कहना है कि...

बदलते
समय के साथ साथ हमारे परिवार के बड़े बूढों में काफी बदलाव आया है। छोटे परिवारों में उनकी जरूरत को महसूस किया जाने लगा है और वे भी अकेले रहने की बजाय नई पीढी क़े साथ सामंजस्य बैठाने में जादा रूचि लेने लगे हैं। इससे छोटे संयुक्त परिवारों की एक नई पीढी सामने आयी है। बाबा दादी या नाना नानी को घर के बच्चों से स्वाभाविक प्यार होता है। बच्चे और बूढों में काफी समानता होती है। कहा भी गया है कि बच्चे बूढे एक समान। एक सबसे बडी समानता यह है कि दोनों गृहस्थी के बोझ से मुक्त होते हैं। इसलिए खाली समय में वे एक दूसरे के अच्छे दोस्त साबित होते हैं।

घर के बुजुर्ग छोटे बच्चों के अच्छे सांस्कृतिक शिक्षक होते हैं। अपनी संस्कृति और धर्म की शिक्षा वे बिना किसी खास मेहनत के दे डालते हैं। छोटे बच्चे कहानियों के शौक में अक्सर दादी या नानी के पास जा बैठते हैं। बाबा दादी और नाना नानी भी उन्हें राम, कृष्ण, गणेश और ध्रुव की कहानियां मजे से सुनाते हैं। जिन्हें बच्चे बडा रस ले कर सुनते हैं। ये कहानियां बच्चों के चरित्र निर्माण में बड़ी अच्छी साबित होती हैं।
बहुत से बाबा दादी या नाना नानी बडे अच्छे शिक्षक होते हैं। बाबा दादी या नाना नानी युवक युवतियों के भी बडे अच्छे दोस्त साबित होते हैं।
बदलते हुए सामाजिक परिवेश के साथ साथ दादा दादी और नाना नानी भी अब काफी बदल गये हैं। अब नानी दादी बहू बेटियों के काम में मीन मेख निकालने की बजाय सहयोग करने लग गयी हैं। पत्र पत्रिकाओं के पढने और टीवी के देखने से बूढों को अपनी पुरानी मानसिकता बदलने में मदद मिली है। आज वे पीढियों का अन्तराल लांघ कर बच्चों के अच्छे दोस्त बन गये हैं जबकि माता पिता व्यस्त होने के कारण बच्चों के इतने करीब अक्सर नहीं आ पाते हैं। ज्यादातर बाबा दादी और नाना नानी को अपने नाती पोतों की देखभाल में काफी आनंद आता है क्योंकि अपने बच्चों की देखभाल के समय वे इतने व्यस्त थे कि बच्चों की देखभाल के अपने अरमान को वे पूरा कर ही नहीं पाए।
बच्चे भी जादातर बाबा दादी और नाना नानी को अपना बेहतर भावात्मक साथी पाते हैं।
इस तरह बात करने, समाज में घुलमिल कर रहने और पीढियों को आपस में जोडने का काम बाबा दादी या नानी बडी अच्छी तरह निभाते हैं। प्रेम रखने वाले दादा दादी या नाना नानी के साथ रह कर बच्चे भी अपने नाती पोतों के लिये अच्छे बुजुर्ग साबित होते हैं। आज बहुत से लोग समझते हैं कि बुजुर्ग पुराने जमाने के हैं और बच्चों के पालन पोषण में उनका सहयोग नहीं लेते। इससे बूढों को ठेस पहुंचती है। बुजुर्गों को भी चाहिये कि वे अपने सोचने के तरीके को पुराना न पडने दें। चुस्त बने रहें और अपने बच्चों को विश्वास में लेकर चलें। हर वक्त नयी पीढी क़ी नुक्ताचीनी करने के बजाय उनकी अच्छाइयों को बताते हुए उन्हें एक सफल मां-बाप बनने के लिये प्रेरित करें।
अगर आपके बेटे-बहू यह चाहते हैं कि बच्चे दो घंटा शाम को जरूर पढे तो इस समय बच्चे की इच्छा जानकर उसे टीवी के पास बुला कर बेटे बहू को नाराज न करें। इससे बच्चा बिगड़ जायेगा। अगर आपसे यह नहीं देखा जाता कि घर के सब लोग आराम से टीवी देख रहे हैं और बच्चा पढ रहा है तो बेहतर यह होगा कि आप बच्चे की सहायता करें और उसे कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही दो घंटा पढा दें। आप भी खुश आपका बेटा भी और पोता भी। यह भी ध्यान रखें कि अगर माता पिता बच्चों को डांट रहे हों तो बीच में न बोलें और बाद में माता पिता और बच्चों को अलग अलग समझाएं ताकि डांट खाने की स्थितियां पैदा ही न हों।


वह भी तो इन्सान हैं, उनको भी जीने का हक़ है...

समय
के साथ बदलते परिवेश में अक्सर यह देखा जाता है कि कई बच्चे अपने मां-बाप की सम्पत्ति के लिये तो उनकी सेवा करते हैं लेकिन तब तक, जब तक कि वह उनके नाम नहीं होती है। एक बार सम्पत्ति पाने के बाद मां-बाप क्या होता है, वे यह भी भूल जाते हैं। अपने मां-बाप को हरिद्वार, काशी, मथुरा या फिर पैतृक निवास गांव आदि जगहों पर रहने के लिये छोड़ देते हैं। ये बेचारे! जिन्होंने अपने बच्चों के लिये अपना सब कुछ उन पर न्योछावर कर दिया उनके साथ ऐसा बरताव... यह कहां की रीति है।
अक्सर रेलवे प्लेटफार्म पर या लोकल रेलगाड़ी के जनरल डिब्बों में ऐसी बूढ़ी महिलाएं या बूढ़े पुरुष देखे जा सकते हैं जो अपना सब कुछ गंवा कर इस हालत तक पहुंचाये गये हैं। पहुंचाने वाला और कोई नहीं बल्कि उनके अपने ही बच्चे या फिर परिवार के लोग होते हैं।
कई बूढ़े पुरुष व महिलाएं जो कि लावारिस की तरह भिखारिन जैसी हालत में लोकल ट्रेन में या प्लेटफार्म पर लाश की तरह से पड़ी रहती हैं। कोई संस्था ऐसे लोगों के लिये इच्छुक नहीं रहती। मुंबई में ऐसे सैकड़ों बुजुर्ग हैं जो बस, दौड़ती लोकल ट्रेनों में भिखारियों की तरह से महानगर के एक कोने से दूसरे कोने में घिसटते हुए एक दिन लावारिस मौत मर जाते हैं। मुझे हजारों बार इस बात का अनुभव हुआ कि किस तरह क्रूर और कमीने बच्चे अपने बुजुर्ग माता-पिता को हजारों किलोमीटर दूर जाने वाली मुंबई की गाड़ी में बैठा कर अपनी जिंदगी जीने के लिये इन माता-पिता से छुटकारा पा लेते हैं जो कि कभी तकलीफ़ उठा कर उन एहसन $फरामोश औलादों के लिये भूखे रहे होंगे।
ये समाज को क्या हो रहा है? बच्चे अपनी जिंदगी में मां-बाप को इतनी बड़ी अड़चन समझते हैं कि हजारों किलोमीटर दूर इस तरह बेहाल सी गुमनामी भरी दुखद मौत के लिए बेरहमी से छोड़ देते हैं। लाशें इधर उधर पड़ी रहती है। फिर महानगर की नगरपालिका इन्हें फूंक कर अपनी जिम्मेदारी निभा देती है। मेरे भीतर के सवाल जल कर खत्म नहीं हो रहे हैं, दिमाग में एक ओर वह मां है जिसका दिमागी संतुलन बुढ़ापे के कारण हल्का सा डगमगा गयी हो, याददाश्त क्षीण हो गयी हो पर बच्चों को अभी भी प्यार करती हो और उनके पास जाना चाहती हो। दूसरी तरफ वे बच्चे जो कि अपने मां-बाप को बोझ समझकर उन्हें अपने से कहीं दूर पहुंचाकर या उन्हें दूर रहने को विवश कर उनसे अपना पीछा छुड़ा लेते हैं।
उन सन्तानों को यह क्यों नहीं समझ में आता है कि उनके मां-बाप, जो कि उनसे इतना प्यार करते हैं, उनको अपनी क्षमता से ज्यादा खुशियां देने की कोशिश करते हैं हम उनके साथ ऐसा बरताव कर रहे हैं...आखिर क्यों? आखिर वह भी इन्सान हैं, उनको भी जीने का हक है।

मंगलवार, 30 जून 2009

देखो ! यह फास्ट ज़माना है...

भाई वाह क्या बात है...
पहले की बात कुछ और थी. लोग एक दूसरे की परवाह करते थे. एक दूसरे को समझते थे और अपना काम पूरी जिम्मेदारी से करते थे. चाहे भले ही अपना कीमती समय क्यों न बर्बाद करना पड़े.
लेकिन आजकल का समय तो ज़रूरत से ज्यादा फास्ट हो गया है. आजकल हर कोई ज़ल्दी में है.जिसको देखो सामने वाले को पीछे करता हुआ आगे निकलने की कोशिश में लगा रहता है. क्योंकि वो ज़ल्दी में होता है.
ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने और आगे बढ़ने की लालसा ने आदमी को मशीन बना दिया है. वह ज़रूरत से ज्यादा तेज़ चलने की कोशिश में लगा रहता है और इसी कारण कई लागों को नुकसान का सामना करना पड़ता है.
कानपुर शहर में गंगा किनारे बिठूर में एक रामधाम आश्रम बना है. वहां के एक बाबा जिनसे हम अच्छी तरह परचित है और उनसे अक्सर मिला करते है. पिछले हफ्ते मिले, आसन लगाये गंगा नदी के किनारे बैठे थे. मैंने प्रणाम कर उनसे पूछा की आप ये क्या कर रहे हो ?
बोले- बेटा! देखते नहीं हो, हम कुछ कुंडलिनी जाग्रत करने और कुछ सिद्धियां प्राप्त करने की कोशिश कर रहे है.
लेकिन आप काफी बूढे हो, आप सिद्धियों का क्या करोगे इस उम्र में,पूछने पर उनका ज़वाब था की - " बेटा समय बहुत फास्ट है. हम बहुत पीछे रह गए है और फिर से युवावस्था प्राप्त करना चाहते है. किसी बड़े मंदिर के महंत बनने की फिराक में है. अगर मौका मिला तो कुछ और भी....उनके पास कुछ किताबें भी रखी हुई थीं. पूछने पर बताया कि उनको पढने का अभ्यास कर रहे हैं और उनसे ज्ञान प्राप्त कर इस मोहमाया से आगे निकलने के लिए प्रयासरत हैं. अर्थात बड़े. (यानी अमीर बनने कि एक नै कोशिश....)
अब इन योगियों, महात्माओं और महापुरुषों तथा पंडितों को जो कि अपने को महराज भी कहलवाते है देख लीजिये. बहुत कम समय में बहुत कुछ करके बहुत कुछ पा लेते हैं. वह भी कुछ भोले- भाले लोगों को बेवकूफ बनाकर. क्योंकि वो ज़ल्दी में होते है.
अब अपने सरकारी प्राइमरी स्कूल के मास्टर साहब को ही ले लीजिये. एक तो कभी क्लास में आते ही नहीं हैं और आते भी हैं तो समय से क्लास में नहीं आते और फिर क्लास ख़त्म होने से पहले ही पढ़ना बंद कर देते है. क्योंकि वे अगली क्लास लेने की जल्दी में होते हैं और वहां भी ये वही क्रिया फिर दोहराते हैं.
सरकारी कर्मचारी जिनको कि सरकार ज़िम्मेदारी के पद पर कार्यरत करती है वे कर्मचारी पॉँच बजने से पहले ही ऑफिस से खिसक लेते हैं. क्योंकि वे घर जाने कि जल्दी में होते हैं. सुबह तो आने का समय होता ही नहीं है, जब इच्छा हुई तो आये वर्ना कौन देखता है कि कोई आया कि नहीं.
अपने ये जो नेतागण हैं, इनका तो कहना ही क्या है...जो विपक्ष के होते हैं बे ज़ल्द से ज़ल्द संसद भंग होने का इंतजार करते है. क्योंकि वे चुनाव कि ज़ल्दी में होते हैं.
अब अगर बात करें गाँव के किसान कि तो वह रोज़ नै तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है. क्योंकि उसको फसल काटने कि जल्दी में होता है. लेकिन ये जो बिजनेसमैन अर्थात व्यापारी होते हैं वे तो ज़ल्द से ज़ल्द लखपति, लखपति से करोड़पति बनने कि फिराक में ही रहते हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि हर कोई आजकल ज़ल्दी में है.
एक सज्जन के यहाँ उनके पहले बेटे का जन्मदिन था. बच्चे को सूं - सूं करता देख उसकी माँ बोली - देखो बच्चा कितना साफ- साफ रोता है. आ इ इ इ इसे स्कूल में दल देते हैं, ई उ वहां सीख जायेगा. इतने में पिता कहाँ शांत रहने वाले थे उन्होंने ध्यान से सुनो बच्चे ने पंचम स्वर में रोया है. इसे संगीत सिखाते है. संगीत सीख कर ये हमारा नाम रोशन करेगा .
एक इंटरमीडीएट के छात्र से पूछा गया कि बेटा तुमने गणित क्यों ली ? कोई और विषय क्यों नहीं चुना ? वह गंभीरता से बोला, सर ! डॉक्टर बनते -बनते बूढे हो जायेंगे. गणित लेने का कारण यह है कि इक्कीस साल में इंजीनियर, कैम्पस और पगार....ठीक ही कहा उसने क्योंकि आजकल के बच्चे भी ज़ल्दी में हैं. एक दिन अचानक मेरे एक मामा जी मिल गए. बोले -" एक सप्ताह से कपालभांति कर रहा हूँ. वजन है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है." मैंने मन में सोंचा कि आपने चालीस साल खाया है , इसको पचास दिन तो करो. ज़ल्दी की तो मत पूछिये, जिसको देखो वही ज़ल्दी में है.
हर न्यूज़ पेपर और न्यूज़ चैनल में यही पढ़ने या सुनने को मिलता है की अमुक जगह अमुक व्यक्ति की हत्या या मृत्यु हो गयी. अब जिसकी मृत्यु हुई, क्यों हुई, क्योंकि वह ज़ल्दी में था. सामने से आ रहे ट्रक के निचे आकर मर गया. ट्रक वाले ने ब्रेक क्यों नहीं लगायी, क्योंकि वह भी ज़ल्दी में था. उसको कहीं और भी ज़ल्दी से पहुंचना था. अगर किसी की हत्या होती है है तो, हत्या क्यों हुई, क्योंकि वह ज़ल्दी में था इसलिए मारा गया. हत्यारा/ जिसने मारा वो भी ज़ल्दी में था. क्योंकि वह अमुक व्यक्ति की हत्या कर उसकी ज़मीन- जायदाद, धन- संपत्ति पाने की ज़ल्दी में था.
खैर ! यह ज़ल्दी का सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा.

खोता हुआ पतित पावन गंगा का अस्तित्व

आखिर कौन है जिम्मेदार...?

गंगा नदी हमारे जीवन का आधार व भारतीय - सभ्यता व धार्मिक आस्था का प्रतीक है. गंगा नदी को स्वर्ग से धरती पर लाने के लिए राजा भगीरथ ने बहुत घोर तप किया था. राजा के शापित पुत्रों को माँ गंगा ने शाप मुक्त कर मोक्ष प्रदान किया. लेकिन वही गंगा आज ग्लोबल वार्मिंग तथा मानवीय गतिविधियों और कुकृत्यों के कारण इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि उसका अस्तित्व खो सा गया है. पतित पावन गंगा को लालची और अज्ञानी मानव ने अपने हित के लिए विषैले पदार्थ उसमे बहाकर इसको प्रदूषित कर दिया है.
आज गंगा सहित कई नदियों पर बांध तथा सुरंगे बनाकर उन्हें तेजी से उजाडा जा रहा है. इस मानवीय कृत्य से भू-कटाव, भूस्खलन आदि की स्थितयां उत्पन्न हो रही हैं. इससे भूकंप की सम्भावना बढ़ सकती है.
आज उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजना पर काफी तेजी से कार्य हो रहा है. कई मायने में तथा बिजली के उत्पादन के आधार पर यह सही हो सकता है लेकिन पर्यावरण तथा स्वास्थ्य सहित कई सामाजिक मानकों के हिसाब से ये योजनायें स्थानीय जनता तथा पर्यावरण के लिए शुभ नहीं है. हमारा हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म का प्रत्येक व्यक्ति गंगा नदी में स्नान कर मोक्ष की कामना करता है. गंगा हमारी मनोकामना को पूर्ण करती है. लेकिन आज हमारे अमानवीय भूलों व विकास की अंधी दौड़ ने गंगा नदी के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है.
फैक्ट्रियों का गन्दा पानी तथा उनके उत्पादन से बचा हुआ अवशिष्ट पदार्थ जो कि गंगा नदी में बहा दिया जाता है. सीवर लाइन का पानी, उसका भी रास्ता कहीं न कहीं से गंगा नदी को ही मिला दिया जाता है. जिससे गंगा नदी दिन प्रतिदिन प्रदूषित होती जा रही है. यही कारन है कि गोमुख ग्लेशियर प्रतिवर्ष २० से ३० मीटर पीछे खिसक रहा है. यही हालत रहे तो वह दिन दूर नहीं जब यह नदी पूरी तरह सूख जायेगी. आज गंगा नदी कि स्थिति बहुत भयावह हो चुकी है. अगर बहुत जल्द इसके विषैले किये जाने पर कोई अंकुश नहीं लगाया गया तो गंगा नदी का नाम-ओ-निशान मिट जायेगा.
गंगा नदी के किनारे बसे शहरों और कस्बों की गंदगी, मल-मूत्र तथा फैक्ट्रियों का विषैला -जहरीला पदार्थ, अधजले मानव व मवेशियों के अवशेष आदि जगह-जगह डाले जाते हैं. धार्मिक आयोजनों तथा पूजा आदि करने का बाद अतिधार्मिक तथा सहिष्णु लोग अपनी पूजा सामग्री तथा कूड़ा -करकट आदि सब गंगा नदी में विसर्जित कर देते है. ये धार्मिक लोग अपने पापों का प्रायश्चित इन नदियों को गन्दा करके करते हैं. अब हालत यह है की गंगा नदी का पानी पीने लायक तक नहीं रह गया है. हरिद्वार में भी गंगा का पानी ठीक नहीं है, जिसको लोग पीने में हिचकिचाते है.
हमारे हिन्दू धर्म में गंगा नदी को पाप नाशिनी तथा मोक्षदायनी कहा गया है. हो भी क्यों नहीं ? गंगा नदी का जल कई वर्षों तक बोतल आदि में बंद करके रखने से ख़राब नहीं होता है. इसका मुख्य कारण यह है कि उत्तराखंड हिमालय से गंगा नदी में जड़ी-बूटियों के रासायनिक तत्व बह कर आते हैं. इसी कारण गंगा नदी का जल कई वर्षों तक ख़राब नहीं होता है. लेकिन आप यह काफी प्रदूषित हो चुकी है. गंगा नदी ही क्या ऐसी बहुत सी नदियाँ हैं जिनका पानी पीने लायक नहीं है. एक आंकलन के अनुसार उनमे से कई नदियों का अस्तित्व संकट में है. जिसमे गंगा नदी भी एक है.
एक अनुमान के अनुसार १९३५ से लेकर १९५० तक इस ग्लेशियर की पिघलने की दर सामान्य थी लेकिन १९५२ के बाद यह क्रम लगातार बढ़ता गया और सबसे अधिक १९९४ से २००८ के बीच यह ग्लेशियर पिघला. जिससे गंगोत्री ग्लेशियर प्रतिवर्ष २५ से ३० मीटर पीछे खिसक रहा है. अगर यही हाल रहा तो आने वाले बीस सालों में मध्य हिमालय से निकलने वाली छोटी-बड़ी नदियाँ सूख जाएँगी.
गंगा नदी की सफाई तथा प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए अब तक लगभग २० से २२ करोड़ रूपये खर्च किये जा चुके हैं. लेकिन गंगा का प्रदूषण अभी तक कम नहीं हो पाया है. अगर समय रहते गंगा सहित तमाम नदियों पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं है जब ये नदियाँ पूरी तरह सूख जाएँगी जिससे मानव सहित तमाम जीव -जगत का अस्तित्व भी संकट में पड़ जायेगा. क्योंकि नदियों के बिना हम अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते हैं. इसलिए समय रहते ईमानदारी पूर्वक इस नदियों को बचाया जाना चाहिए. विकास की अवधारणा सकारात्मक होनी चाहिए, विकास के नाम पर प्रकृति को छिन्न- भिन्न करना नहीं है. हम विकास विरोधी बात नहीं कर रहे है लेकिन उस विकास से क्या फायदा जिससे मानवीय सभ्यता पर ही संकट मंडराता रहे.

शुक्रवार, 8 मई 2009






Kuldeep Kumar Mishra



Kuldeep Kumar Mishra



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Kuldeep Kumar Mishra



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Kuldeep Kumar Mishra