भारत सरकार और प्रदेश सरकार के समवेत प्रयास से गरीब बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन योजना 15 अगस्त 1955 को लागू की गई थी जिसमें मुख्य भूमिका केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की रही। इसके अंतर्गत कक्षा 1 से कक्षा 5 तक के सभी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को दोपहर में भोजन देने का प्रावधान किया गया था, चाहे संबंधित विद्यालय राज्य सरकार, परिषद अथवा अन्य सरकारी निकायों द्वारा संपोषित हो। सरकार ने मिड डे मिल के लिए काफी धन आवंटित किए और विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से प्राथमिक और अब कई माध्यमिक विद्यालयों में इसको लागू किया। कागजों में भले ही योजना सफल बताई जाए लेकिन वास्तविकता के धरातल पर आते ही इसके इर्द-गिर्द अनेक सवाल खड़े हो जाते हैं। विभिन्न रिपोर्ट बताते हैं कि जिन इलाकों में इस योजना की सबसे अधिक जरूरत थीं, उन्हीं इलाकों में यह धराशायी हो रही है, वहीं सबसे ज्यादा अनियमितता है। बच्चों को खाना नहीं मिल रहा है, लेकिन इसके लिए दोषी कौन है? सरकार व सरकारी विभाग के वे लोग जिनको इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है।
विभागीय कर्मचारियों की लापरवाही, कामचोरी और रिश्वतखोरी के चलते इस योजना का लाभ गरीब व मासूम बच्चों को मिल पायेगा? इस विषय पर कुछ भी कहना मुनासिब नहीं होगा।
इस सरकारी तंत्र की गलतियों का हरजाना मासूम बच्चों को अपनी जान गंवा कर भरना होता है। उनके लिये जो भोजन पकाया जाता है उसमें पौष्टिकता व स्वच्छता का अभाव होता है। कई बार तो सुनने में आता है कि बच्चों के भोजन में कीड़े, कंकड़ व छिपकली तक पायी गयीं। अब ऐसे भोजन को ग्रहण करने वाले बच्चे मौत की गोद में नहीं जायेंगे तो कहां जायेंगे? जिनको समय पर इलाज की सुविधा उपलब्ध हो जाती है वह कभी-कभी बच भी जाते हैं। लेकिन क्या यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा, इस पर क्या कभी कोई सरकारी विभाग ध्यान नहीं देगा? इस सम्बन्ध में सभी खामोश हैं।
अभी पिछले दिनों पिठोरिया थाना क्षेत्र के कोल्हया कनान्डू ग्राम स्थित राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय में मिड डे मील के लिए पकी गरम दाल में गिरने से 7 वर्षीय बच्ची की मौत हो गयी। अफसरी परबीन नामक इस छात्रा के परिजनों ने बिना पोस्टमार्टम के बच्ची के शव को मंगलवार को दफना दिया। मामले में प्राथमिकी भी दर्ज नहीं की गयी। बाद में ग्रामीणों के उत्तेजित होने पर प्रशासन ने चुस्ती दिखाई। शिक्षकों को निलम्बन कर दिया गया। विद्यालयों एवं शिक्षा विभाग के कर्मचारियों के लापरवाही के कारण झारखंड में लगातार ऐसी घटनाएं कभी भोजन में छिपकली गिरना, तो कभी साँप एंव दूसरी जहरीली वस्तुओं का मिलना यहाँ आम बात हो गयी है। जिस कारण अनेक बच्चे बीमार हो गये और कइयों ने तो अपनी जान से भी हाथ धो दिया। यह हाल सिर्फ झारखण्ड का नहीं बल्कि कई ऐसी क्षेत्र हैं जिनमें ऐसी घटनाएं आये दिन होती रहती हैं। प्रशासन है कि चुप्पी साधे बैठा है। वह इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं देता है।
दरअसल, मिड डे मिल योजना को लागू करना सरकार की प्राथमिकता में नहीं था। मगर, स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा अत्यधिक जोर दिए जाने पार सरकार को इसे लागू करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
देश में सबसे पहले यह तमिलनाडु में लागू किया गया। इसके पीछे मकसद यह था कि जिन बच्चों को खाना नसीब नहीं हो पाता है, वे खाना के नाम पर ही सही स्कूलों में आएंगे और यदि आयेंगे तो उन्हें शिक्षा जरूर मिल जाएगी। कारण, देश में लाखों ऐसे परिवार हैं जो पेट की क्षुधा शांत करने के चक्कर में बच्चों को शिक्षित नहीं कर पाते हैं। लेकिन वर्तमान में यह योजना सुचारू रूप से लागू नहीं हो पा रही है।
गाँव देहात एवं गरीब बच्चों को शिक्षा की ओर आकर्षित करने और उन्हें सहायता प्राप्त करने का यह एक विवेकपूर्ण एवं सराहनीय प्रयास है, परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि इस योजना का शरारती तत्वों के द्वारा अनुचित उपयोग किया जाने लगा। झारखंड एवं बिहार जैसे भ्रष्ट राज्यों में इस योजना हेतु आवंटित राशि का बंदरबाँट शुरू हो गया।
स्वयंसेवी संस्था 'मंथन' के द्वारा कक्षा पांच से ऊपर के बच्चों पर किए गए सर्वेक्षण में यह देखने में आया है कि स्कूल के अधिकतर बच्चे सुबह का नाश्ता करके नहीं आते। वे बच्चे भूखे क्यों आते हैं, इसका कारण पूछने पर अधिकांश बच्चों ने इसका कारण गरीबी और परिवार की आर्थिक तंगी बताया।
ग्राम स्वराज अभियान द्वारा किए गए शोध के अनुसार पूरे देश में लगभग 20 प्रतिशत बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जो बच्चे स्कूल जाते हैं और जिन्हें मिड डे मिल योजना का लाभ मिल जाता है उसमें अल्पसंख्यक, दलित एवं आदिवासी बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। सर्वेक्षण में पाया गया कि 7 प्रतिशत स्कूलों में आपसी मतभेद योजना के सुचारू रूप ने चलने का कारण था, वहीं 9 प्रतिशत स्कूलों में शिक्षक ही उपलब्ध नहीं थे।
खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के आंकड़ों की जुबानी बात की जाए तो भी यही परिलक्षित होता है कि मिड डे मिल योजना के मद में सरकार द्वारा जितना अनाज आवंटित हुआ था उतना खर्च नहीं हो पाया। सरकारी गोदाम में लाखों टन अनाज धरे रह गए।
विभाग द्वारा साल 2001-02 में 18.67 लाख टन चावल और 9.96 टन गेहूं आवंटित था जबकि खर्च हुए महज 13.48 लाख टन चावल और 7.28 टन गेहूं। इसी प्रकार साल 2002-03 में 18.84 लाख टन चावल और 9.40 टन गेहूं के एवज में 13.75 लाख टन चावल और 7.45 टन गेहूं, साल 2003-04 में 17.72 लाख टन चावल और 9.08 टन गेहूं के एवज में 13.49 लाख टन चावल और 7.20 टन गेहूं, साल 2004-05 में 20.14 लाख टन चावल और 7.35 टन गेहूं के एवज में 15.41 लाख टन चावल और 5.92 टन गेहूं, साल 2005-06 में 17.78 लाख टन चावल और 4.72 टन गेहूं के एवज में 13.64 लाख टन चावल और 3.63 टन गेहूं और साल 2006-07 (जनवरी तक ) में 17.17 लाख टन चावल और 4.17 टन गेहूं के एवज में 10.48 लाख टन चावल और 2.85 टन गेहूं खर्च हुए हैं।
इस प्रकार सरकार द्वारा जितना अनाज आवंटित किया जाता है, संबंधित विभागीय कर्मचारी उसका सदुपयोग नहीं कर रहे हैं। सर्वशिक्षा अभियान की तरह यह भी विभागीय अकर्मण्यता और उपेक्षा का शिकार होता जा रहा है। जिस पर अभी तक किसी भी विभागीय अधिकारी का ध्यान नहीं गया है।
ऐसे तो मिड डे मिल के संचालन की पूरी जिम्मेदारी ग्राम शिक्षा समिति के अध्यक्ष व माता समिति की संयोजिका की होती है। लेकिन हाल के दिनों में मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी के कारण विभाग का कोड़ा इस कदर हेडमास्टरों एवं पारा शिक्षकों पर बरसा है कि सबने मध्याह्न भोजन को दुरुस्त करने की ठान ली है। विद्यालय के बाकी काम-काज भले ही हाशिये पर चला जाय लेकिन मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए। प्रधानाध्यापकों ने इसके लिए बकायदे एक शिक्षक को प्रतिनियुक्त कर दिया है। खाना बनने से लेकर बंटने तक उक्त शिक्षक अध्यापन से दूर रहते हैं। यदि देखा जाय तो एक शिक्षक को 20 से 25 हजार रुपए के बीच प्राप्त होते हैं। ऐसे में मध्याह्न भोजन की निगरानी में सरकार की मोटी रकम जा रही है। शिक्षक आते हैं पढ़ाने लेकिन उनका ध्यान मध्याह्न भोजन में ही लगा रहता है। अब सरकार तय करे कि क्या बच्चों का पेट भरना ही जरूरी है या बच्चे को एक कुशल नागरिक भी बनाना है। यदि सफल व शिक्षित नागरिक बनाना है तो शिक्षकों को एमडीएम से अलग रखने की मांग को बार-बार हवा में क्यों उड़ाया जा रहा है।
सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मिल आदि जैसी कई योजनाओं के विज्ञापन पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है। लेकिन विभागीय कर्मचारी जिनको यह कार्य जिम्मेदारी से पूर्ण करने के लिये सौंपा गया है वह ऐसी बचकानी और लापरवाही पूर्ण हड़कतें करते हैं कि बच्चें स्कूलों में जाने से भी डरने लगें हैं। बच्चों के माता-पिता भी यह सोच रहे हैं कि उनका बच्चा स्कूल जा रहा है, पता नहीं सकुशल घर लौटेगा कि नहीं। ऐसे अकर्मन्य लापरवाह लोगों के प्रति सरकार को कठोर से कठोर कदम उठाना चाहिए, ताकि सरकार की ऐसी योजनाओं का सदुपयोग हो सके और शिक्षा विभाग की गुणवत्ता में सुधार आये।
जरा इन बातों पर भी दीजिये ध्यान...
- मिड डे मिल योजना के अन्तर्गत जो खाना पकाया फिर उसको बच्चों को वितरित किया जाता है उसकी गुणवत्ता तथा पौष्टिकता पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
- खाना पकाने और परोसने वाले क्षेत्र में सफाई सम्बन्धी कड़े नियम लागू किए जाने चाहिए।
- पिछले दिन के बचे हुए खाने को अगले दिन न परोसने पर नियंत्रण होना चाहिए। (स्वास्थ्यकर आहार को ज्यादा समय नही रखा जा सकता, खासकर जहां मौसम ज्यादा गर्म हो।)
- वसा तेलों की गुणवत्ता की निगरानी की जानी चाहिए ट्रांसफैटी एसिड्स के इस्तेमाल पर रोक लगा देनी चाहिए।
- जहां कहीं भी संभव हो साबुत अनाज और दालों का मिड डे मील्स में इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
- मौसमी सस्ते और बिना कटे फल भी दिए जा सकते हैं।
- खाने को तैयार करते समय रंगों और एडिटिव के इस्तेमाल पर रोक होनी चाहिए।
- खाना बनाने के लिए आयोडीन युक्त नमक का इस्तेमाल होना चाहिए।
- खाने में डालने के लिए स्थानीय तौर पर उपलब्ध सस्ती गिरियों (बिना नमक लगी) फलों के बीजों का इस्तेमाल किया जा सकता है। (मूंगफली, खरबूजे, तरबूज के बीज, अखरोट आदि)
- अगर किसी क्षेत्र विशेष की ऐसी मांग हो तो आहार में फालिक एसिड और लौह तत्वों को शामिल किया जा सकता है।
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