क्या आजादी है...? लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
क्या आजादी है...? लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 8 अगस्त 2009

क्या यही आजादी है...

'आजादी' यह रामुओं के लिये नहीं है...

आजादी! आखिर क्या है आजादी? कहां है आजादी? किसके पास है आजादी? कौन है आजादी? रामू जैसे कई लोग जानते ही नहीं कि 'आजादी' क्या है। और जाने भी क्यों! उनको तो अपनी मजबूरी, अपनी मजदूरी से ही समय नहीं मिलता है। रामू जैसे लोगों को अपने हक की बात करने तक का अधिकार इस आजादी में नहीं हासिल है। बात कहने का क्या उन्हों तो सोचने का भी हक नहीं है। अगर वे लोग ऐसा करते या करने की सोचते भी हैं तो हमारे आजाद भारत के आजाद पुलिस के सिपाही जेल में बन्द कर देते हैं और कोई ज्यादा बोलता है तो उसे दुनिया से ही आजाद कर देते हैं।
रामू जैसे लोगों को इस दुनिया में रहने से आजादी नहीं बल्कि इस दुनिया को छोडऩे से आजादी नसीब होती है। ऐसे ही एक रामू अपने बच्चों को लिये हुए जा रहा है। तभी एक जानने वाले ने कहा कि कहां जा रहे हो रामू, इन बच्चों को लिये। रामू बोला-'पंद्रह अगस्त के लिए तिरंगे झंडे की जिद कर रहे हैं। दुकान पर कागज वाला झंडा दिलाने जा रहा हूं। रामू अपने बच्चों को अलग-अलग झंडे दिला लाया, पूछा तो बताया कि दो रुपए का एक मिला है। तिरंगे झंडे और देश की चाह के सामने उस समय इस गरीब की गरीबी का चेहरे पर कोई भाव नहीं था। लेकिन हम जैसों के लिए वह एक विचार जरूर छोड़ गया कि आजादी से आज तक बहुत कुछ बदला लेकिन रामू के जैसे लोग वहीं के वहीं हैं। उनको अपनी गरीबी से आज़ादी का नंबर अभी तक नहीं आया? स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस इनके समारोहों में रामू जैसे गरीबों और उनके बच्चों के ही हाथों में खुशी से झंडे लहराते हुए समारोह की शोभा बढ़ाते दिखाई देते हैं। कुर्सियां औरों के लिए ही लगाई जाती हैं। उस दिन के जश्न की असली शोभा वहीं होते हैं लेकिन वास्तव में वह जश्न इनके लिए नहीं होता। उस दिन भी अमीरी-गरीबी में बड़ा ही भेदभाव। इस मौके पर बहुत सारे फल- मिठाइयां तो आते हैं लेकिन लेकिन वह सिर्फ उनके लिये होते हैं जो कि मंच पर पड़े सोफे पर बैठे होते हैं और सामने की कुर्सियों पर। रामू के जैसे लोगों के बच्चों के लिये नहीं। उनको अपने बच्चों के लिए रास्ते से ही लड्डू या केले जरूर खरीदकर देने होते हैं नहीं तो वह अपने बच्चों के इस सवाल का जवाब नहीं दे पाएंगे कि जब वहां सबको लड्डू व फल मिल रहे थे तो हमें क्यों नहीं मिले?
हर साल स्वतंत्रता के जश्न के ऐसे आयोजनों की 15 अगस्त या 26 जनवरी को धूम तो दिखाई पड़ती है, लेकिन वह वास्तविक धूम नहीं होती। वह एक प्रकार की रस्मअदायगी सी दिखाई पड़ती है। गंधाते हुए भाषण और सड़े हुए फल, यही सच्चाई है इन आयोजनों की। इसलिए ऐसे आयोजनो का आंतरिक भाव लुप्त होता जा रहा है। सच्ची अनुभूति तो वह होती हैं जो सर्वत्र क्षण महसूस की जा सके। स्वतंत्रता का अनुभव आजादी के इतने सालों के बाद भी आम गरीब शोषित पीडि़त जनता को तो नहीं हुआ है। हो भी कैसे सकता हैं? कितने रामू जैसे गरीब लोग आज भी रोटी-रोजी की तलाश में दर-दर भटकते हैं। जातिवाद, धर्मवाद, महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, सामाजिक, आर्थिक कुव्यवस्था जैसी मुश्किलों से वे वैसे ही जूझ रहे हैं। जब तक ये जूझते रहेंगे तब तक ये खुद को कैसे स्वतंत्र मान लें?
आज के प्रगतिशील युग में भी सामाजिक बुराइयां शोषित पीडि़त वंचित जनता के जीवन में काफी दुखदायी हैं। सही मायने में यही बुराइयां ही असली आजादी का एहसास नहीं होने देती हैं। सबको आजादी का एहसास होगा लेकिन उसके लिये समानता के भाव को विकसित करना होगा। जातिवाद खत्म करना होगा। रामू जैसे गरीबों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराने होंगे। शिक्षा एवं समुचित रोजगार के बंदोबस्त करने होंगे। भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को खेती की जमीन देनी होगी। सत्ताधारियों को बिना किसी भेदभाव के आमजनों की समस्यों का निराकरण करना होगा। तभी आम आदमी की आंखों में चमक आ सकेगी। हमारे देश की आधी से ज्यादा जनता झोपडियों में बसती है। ये लोग युग-युग से चुपचाप अपना काम करते आ रहे हैं। ये ही इस देश की समस्त संपदा के असली उत्पादक हैं। दुर्भाग्यवश आजाद देश में यही लोग शोषण उत्पीडऩ के शिकार हैं और स्वतंत्रता से बहुत दूर पड़े हुए है। इनकी चौखटों पर आज भी भूख लाचारी का रोज ही ताडंव होता है।
जिस देश के पढ़े लिखे युवक दुनियां को अपने ज्ञान का लोहा मनवा रहे हैं, जिस देश में उच्च पदों से लेकर अतिनिम्न पदों के लिये शैक्षणिक योग्यता निर्धारित है और उनके रिटायरमेंट की अवधि तक निर्धारित है उस देश में लोकतंत्र के नाम पर अल्पशिक्षित लोग देश के सर्वोच्च पदों तक पहुंच जा रहे हैं। सासंद विधायक बन रहे हैं, कब्र में पैर लटकाये हुए भी मंत्री तक के पदों पर बैठे हैं। क्या यह सर्वसमाज की शिक्षित प्रतिभाओं के साथ छल नहीं? इस अन्याय को न्याय का रूप कौन देगा? क्योंकि इस प्रक्रिया में बदलाव सत्तासुख से विमुख कर सकता है और मरने के बाद राजकीय सम्मान के साथ दाह संस्कार की सुविधा में भी अड़चने खड़ी हो सकती हैं।