गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

आग एक, रूप अनेक

आग एक, रूप अनेक
आग, जिससे हर पल तपता है समाज...

'आग' आग का मतलब क्या होता है? आग किसे कहते हैं? आग क्यों होती है? यह आग क्या, क्यों और किसे, किस-किस रूप में नुकसान पहुंचाती है? क्या कभी सोचा है आपने...? आग कोई भी हो, कैसी भी हो, लेकिन होती तो वो आग ही है।
अक्सर लोग आग लगने का मतलब यही लगाते हैं कि कहीं किसी क्षेत्र, परिवेश, घर, झोपड़ी, मकान, फैक्ट्री, गोदाम या किसी वस्तु विशेष में आग लगी और वह जल कर राख हो गयी। लेकिन आग का मतलब सिर्फ किसी वस्तु या पदार्थ का जलना नहीं होता बल्कि कुछ और भी होता है। आग के कई विकराल रूप भी हैं जिनसे हम बखूबी वाकिफ हैं।
आग बड़ी प्रबल होती है। आग का होना और न होना दोनों घातक माना जाता है। आग को सर्वशक्तिमान कहा गया है जिसमें सब कुछ स्वाहा हो जाता है 'काह न पावक सके, का न समुद्र समाय' कहा गया है। आग पेट की भी होती है और पानी की भी तथा काष्ठ की भी होती है। आग पानी की दुश्मनी है पर पानी में आग समाहित भी रहती है। आदमी का आग से जन्म से मृत्यु तक का साथ है।
आग लगाना अच्छा नहीं होता। होली की आग, चूल्हे की आग, पेट की आग और भट्ठी की आग अलग-अलग होती है। दिल की आग या तो प्रेम के कारण होती है अथवा दुश्मनी के कारण बनती है। कभी-कभी क्रोध में आंखें भी अंगारे बरसाने लगती है। वे आगे बबूला होकर चिनगारियों और लपटों में बदल जाती हैं। दुश्मनी की आग बुझाने का काम समझदार और सहनशील लोग करते हैं, पर अवसरवादी दुर्जन तो आग में घी डालकर बढ़ाने की चेष्टा करते हैं। आग को हवा देना किसी के लिये अच्छा नहीं है। आग किसी को छोड़ती नहीं। एक बार आग की लपटें उठीं तो वे जलाकर ही दम लेती हैं। आग की लपटें किसी को भी नहीं बख्सती हैं। चाहे वह किसी भी श्रेणी में आता हो। आग आग होती है उसका काम जलाना अर्थात सब कुछ बरबाद कर देना होता है।
अत: आग लगाकर पानी को दौडऩा न बुद्धिमानी है और न मनुष्यता। ऐसे लोग पाखंडी होते हैं। कई लोग तो जलती आग में अपने हाथ सेंकने तथा रोटी सेंकने से भी नहीं चूकते हैं। उन्हें किसी के दुख दर्द में कोई सहानुभूति नहीं होती है। उनके लिये स्वार्थ ही सर्वोपरि होता है। कुछ लोग आग लगाकर दूर से तमाशा भी देखते हैं। एक दूसरे को आपस में लगवाकर उनमें आपस में दुश्मनी करवा देते हैं और ऐसा कर वह अपना मतलब सीधा कर लेते हैं। उनकी आपसी लड़ाई का ये बखूबी फायदा उठाते हैं। हमें इन्हें पहचानना होगा। अन्यथा हमारा समाज कभी भी शांतिपूर्वक नहीं रह पायेंगे।
कुछ लोग जरा-सी बात को जंगल की आग की तरह फैलाते हैं। ऐसी बातों को अफवाहें भी कहते हैं। जंगल की आग अपना-पराया नहीं पहचानती। जलती आग की धधकती लपटें सबको अपने में समेट कर ख़ाक कर देती हैं। आदमी तेज बुखार से भी आग की तरह तपता है और किसी भीतरी आघात अथवा अपमान से भी तपता रहता है। भीतर की यह आग दुश्मनी का रूप ग्रहण कर लेती है। विरहणियों (प्रेमिकाओं)के लिये तो चन्द्रिका की किरणें और चांदनी भी आग बन जाती है। बहुतेरी प्रेमिकाओं को चन्द्रमा ने भस्म कर दिया। प्रेम के प्रभात से नायक नायिकायों की आँखें अग्निवाण का काम करने लगती हैं। आग की कहानियों से हमारा साहित्य भरा हुआ है। पेट की आग सबसे भयानक और खतरनाक होती है, यह आदमी से न जाने क्या-क्या, उचित-अनुचित कार्य कराती रहती है। पेट की आग मान-अपनान से परे बन जाती है। जब तक पेट की आग शांत नहीं हो जाती तब तक न घर अच्छा लगता है, न घर के लोग, न परिवार के लोग, न ही मित्र, न ही सहयोगी। यहां तक कि उसके अपने खुद के बच्चे भी कुछ क्षणों के लिये पराये से हो जाते हैं। क्या करें यह पेट की आग है ही कुछ ऐसी। इसीलिये कहावत भी कही गयी है कि -
'भूखे भजन न होहिं गोपाला, या लेव अपनी कण्ठी-माला।'
जिन नौजवान युवकों के भीतर सम्मान, स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम की आग नहीं होती, उनका जीवन बेकार है। अन्तरात्मा की आग व्यक्ति को शाक्तिमान और साधन-सिद्ध बनाती है। इसलिये सर्जना और साधना की आग को बनाये और उसे सुलगाये रहना चाहिये। आग का ठंडा होना जीवन की समाप्त का द्योतक है। जो आग की पूजा करते हैं, आग से नहीं डरते, वे ही जीवन में अविस्मरणीय कार्य करते हैं। इसीलिये स्वर्गीय दुष्यंत त्यागी ने कहा था-
'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही।
हो कहीं भी आग, लेकिन आग होनी चाहिये।'
प्यार और भूंख में अलंकार भी आग बन जाते है। आग धधकाने में भी समय लगता है और धधकती आग को ठंडा करना भी इतना आसान नहीं होता। कई बार तो हवन करने में भी हाथ जल जाते हैं। निर्भीक बलिदानी और बहादुर लोग अंगारों से खेलते हैं। वे दूसरों को आग में झोंकने की बजाय आग को अपनी मजबूत मुट्ठियों में बन्द कर लोगों को प्रेरित करते हैं। वाणी से आग उगलते रहने की बजाय हमें दूसरों की आग शांत करना चाहिये। आग की तरह खौलते रहना अच्छा नहीं होता। शांति से विचार करना सार्थक और रचनात्मक होता है। किसी कवि ने कहा भी है कि:-
'जब भूख की आंधी आती है तो,
अच्छा-बुरा
ईमान-धरम
अपना-पराया
सब कुछ उड़ा ले जाती है
टूट जाते है सब बंधन
कड़ी बस एक
पेट और मुहँ की
शेष रह जाती है।'

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