शिक्षा का बदलता स्वरूप
बिना गुरु के ज्ञान असम्भव
वर्तमान समय में लोग कहते हैं कि गुरु व शिष्य के बीच सेवा भाव का लोप हो गया है। लेकिन ऐसा नहीं है। गुरु अपने शिष्य को विद्यालय से अलग बुलाकर विशेष तरीके से उसको शिक्षित करता है। शिष्य भी अपने कत्र्तव्य से पीछे नहीं हटता है। अपने गुरु व गुरुजी के घर के सारे कामों को बखूबी जिम्मेदारी से करता है। आधुनिक गुरु अर्थात अध्यापक लोग अपने शिष्यों यानी छात्रों के लिये विशेष शिक्षा केन्द्रजैसे कोचिंग सेण्टर व इंस्टीट्यूट जैसे कुटीर व लघु शिक्षा केन्द्रों (उद्योग धन्धों) का शुभारम्भ किया बल्कि उसे पूर्ण रूप से विकसित भी किया। इस प्रक्रिया को वह लोग निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ाते भी जा रहे हैं।
हमारे देश में कई वेद, शास्त्र व पुराण अनेक विद्वानों द्वारा लिखे गये। लेकिन इस कोचिंग व्यवस्था पर कोई ग्रन्थ या पुराण नहीं लिखा गया। शास्त्रों की बखिया उधेडऩे वाले उन विद्वानों के लिए यह डूब मरने की बात है जिन्होंने वेदों में प्रमुख ऋगुवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और शास्त्रों और पुराणों में अग्निपुराण, भागवतपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, गरुणपुराण, कर्मपुराण, लिंगपुराण, मारकाण्डेय पुराण, मतस्यपुराण, नारद पुराण, नरसिह्मापुराण, पदमपुराण, शिवपुराण, स्कन्द पुराण, वैवत्रपुराण, वामन पुराण, वारहपुराण, विष्णुपुराण। लेकिन कलयुग के इस आधुनिक युग के लिये एक बेहद जरूरी व महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखना भूल गये। जिसका नाम मेरे हिसाब से कोचिंग सेण्टर या फिर लघु व कुटीर उद्योग शिक्षा-शास्त्र/पुराण होना चाहिये।
हमारे आधुनिक अध्यापक इस ग्रन्थ की उपयोगिता व आवश्यकता को समझते हुये इसकी नींव रख दी है। वे छात्रों को कोचिंग पढऩे के लिये अपने नवीनतम तरीकों से मजबूर करते रहते हैं।
इसके कई तरीके हैं- कक्षा में देर से आना, कक्षा में पहुँचकर माथा पकड़कर बैठ जाना। एकाध सवाल समझाकर सारे कठिन सवाल गृह-कार्य के रूप में देना। यदि छात्र कक्षा में कुछ पूछे तो - 'कक्षा के बाद पूछ लेना' कह देना। कक्षा के बाद पूछे तो 'घर आओ तब ही ढंग से बताया जा सकता है।' दूसरी विधि-छमाही परीक्षा में चार-पाँच को छोड़ बाकी छात्रों को फेल कर देना। फिर देखिए सुबह-शाम छात्रों की भीड़ अध्यापकों के घर में दिखने लगती है।
अभिभावक लोग अध्यापक से न जाने क्यों जलते हैं? जो अपनी ही आग में जला जा रहा है उस बेचारे से क्या जलना? राम तो विष्णु के अवतार थे उन्हें भी गुरु के घर जाना पड़ा। यह कारण था कि अल्पकाल में ही उन्होंने सारी विद्याएँ प्राप्त कर लीं थीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इस बात की पुष्टि की है- गुरु गृह गए पढऩ रघुराई। अल्पकाल विद्या सब पाई। जब भगवान का यह हाल था तो भला आज के छात्र की क्या औकात कि वह अपने विषय के अध्यापक से विशेष प्रकार की शिक्षा ग्रहण (ट्यूशन न पढ़े) न करे।
कलयुगी अध्यापकों ने अपनी काबिलियत और ज्ञान को बेचना अपना पेशा बना लिया है। ये कोचिंग सेण्टर के नाम से अपनी दुकानें चलाते हैं। कुछ लोग यह काम बड़े स्तर पर करते हैं। इसके लिये वे इंस्टीट्यूट नामक बड़े उद्योग की शुरूआत करते हैं।
इस प्रकार जब उनकी दुकानें चल निकलती हैं तो दो शिफ्टों में सुबह और शाम को वास्तविक पढ़ाई शुरू हो जाती है। गुरु जी पढ़ाते समय विभिन्न दैनिक एवं पारिवारिक कार्यों को भी संपन्न करते रहते हैं, अच्छा भी है-एक पंथ दो काज।
कुछ लोग कहते हैं कि छात्रों के हृदय से सेवा-भावना का लोप हो रहा है। इन गैर सरकारी 'कुटीर एवं लघु शिक्षा केन्द्रों व इंस्टीट्यूट जैसे बड़ी उद्योग फर्मों का निरीक्षण करें तो उन्हें अपनी विचारधारा बदल देनी पड़ेगी। सुबह के समय एक छात्र डेरी से दूध ला रहा है। दूसरा छात्र अपने गुरु के पुत्र को उसके विद्यालय पहुँचा रहा है। तीसरा छात्र गुरु पत्नी की सेवा में जुटा हैं और सिल पर मसाला पीस रहा है, चौथा छात्र घर की रसोई में सहायता कर रहा है। चक्की से गेहूँ पिसवा कर लाना, सब्ज़ी मंडी से सब्ज़ी लाना, धोबी के यहाँ मैले कपड़े भिजवाना, गुरु जी के लिए दुकान से बीड़ी-पान खऱीद कर लाना इन सभी कार्यों को छात्र ही संपन्न करते हैं। उसके बावजूद भी कुछ बुद्धिजीवी लोग यही कहते हैं कि छात्रों के हृदय से अपने गुरु अर्थात अध्यापक के प्रति सेवा-भावना का लोप हो रहा है। यह तो सरासर नाइन्साफी है छात्रों के साथ।
यदि सेवा भावना से गुरु प्रसन्न है तब भगवान भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गुरु जी अगर नाराज है तो भगवान भी सहायता नहीं कर सकते। ज्ञान ध्यान स्नान के लिए एकांत होना आवश्यक है। कक्षा की भीड़-भाड़ में ज्ञान-चर्चा करना व्यर्थ है। आज हमारी सरकार शिक्षा-नीति के परिवर्तन पर बहुत ध्यान दे रही हैं। मेरी सलाह कोई माने तो 'हींग लगे न फिटकारी रंग चोखा चढ़े।' सब विद्यालय बंद करा दिए जाएं। भवन-निर्माण, फर्नीचर, वेतन सभी खर्च समाप्त। छात्रों के उज्जवल भविष्य व अच्छी पढ़ाई के लिये कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केंद्र चलाने के लिए धाकड़ अध्यापकों को प्रोत्साहित किया जाए। क्योंकि वर्तमान में जाने-अनजाने में हो तो यही रहा है। विद्यालय में छात्रों की संख्या भले ही कम हो लेकिन इन पढ़ाई के कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केंद्रों पर किसी विद्यालय के छात्रों की संख्या से यहां की संख्या कम नहीं होती। इस कारण अध्यापकों का भी कत्र्तव्य बनता है कि वह अपने प्रिय छात्रों का विशेष रूप से ध्यान रखें। आखिर वह बड़ी-बड़ी रकम ट्यूशन फीस के रूप में जो देते हैं। इसलिये अध्यापक अपने इस कत्र्तव्य पथ से जरा भी भ्रमित नहीं होते। अपना कार्य वे बखूबी निभाते हैं।
अपने प्रिय छात्र के लिए अध्यापक को कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते हैं। परीक्षा कक्ष में नकल की विशेष छूट देना, पेपर आउट करना, कापी में नंबर बढ़ाना या घर जाकर कापी में लिखवाना। लिखित परीक्षा में दस प्रतिशत नंबर लाने वाले छात्र को प्रयोगात्मक परीक्षा में नब्बे प्रतिशत अंक दिलवाना आदि बहुत-सी सेवाएँ सम्मिलित हो जाती हैं।
यदि कोई सनकी अध्यापक इनके धंधे-पानी में बाधा बनता है तो ये विषैले साँप बनकर उसे डसने का मौका ढूँढ़ते रहते हैं। मुँह का ज़ायका बदलने के लिए ये चुगली का भी सहारा लेते हैं। यदि अर्ध-वार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को बोर्ड की परीक्षा से वंचित करने का नियम दिया जाए। इससे ट्यूशन के कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन मिलेगा तथा धंधे की गिरती हुई प्रतिष्ठा को बल मिलेगा।
कानपुर कभी अनेक लघु एवं कुटीर उद्योग धन्धे व बड़े-बड़े कारखाने का केन्द्र माना जाता था। लेकिन समय के साथ वे सब तो बन्द हो गये लेकिन कानपुर वासियों ने उसकी अस्मिता को बचाये रखा। उन्होंने कोचिंग व ट्यूशन के बहाने से कुटीर एवं लघु उद्योग व शिक्षा-केन्द्रों का न कि शुभारम्भ किया बल्कि उसे पूर्ण रूप से विकसित भी किया। वर्तमान में कानपुर शिक्षा का केन्द्र माना जाने लगा है। कोचिंग सेण्टर व कुटीर एवं लघु उद्योग व इंस्टीट्यूट जैसी बहुत सी फर्में जो जगह-जगह हैं इस बात का प्रमाण हैं।
गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009
शिक्षा का बदलता स्वरूप
ध्वस्त होता ट्राफिक! सिपाहियों को है न फिक्र
ध्वस्त होता ट्राफिक! सिपाहियों को है न फिक्र
कानपुर। भाइयों आपने एक कहावत तो सुनी ही होगी 'एक अनार, सौ बीमार'। शहर के यातायात की भी कुछ यही स्थिति है। यहां ट्राफिक सिपाहियों से दो गुने तो चौराहे हैं। अब इस स्थिति में यातायात व्यवस्था सुधरे भी कैसे? लगभग पिछले कुछ वर्षों से यह समस्या है पर प्रशासन है कि सिपाहियों की नयी भर्ती करता ही नहीं है। अब जितने सिपाही हैं उससे दो गुने होमगार्डों को शामिल कर शहर के चौराहों पर तैनात किया जाता है जिससे शहर की यातायात व्यवस्था को नियंत्रित किया जा सके। अब जिन चौराहों पर ट्राफिक पुलिस या होमगार्डों के जवान नहीं तैनात होते हैं वहीं से यातायात व्यवस्था ध्वस्त होने लगती है।
शहर मे बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण ध्वस्त हो चुकी यातायात व्यवस्था हैं। जिसके बारे में रोज नये नये समीकरण बनाये जाते हैं परन्तु चंद दिनों के बाद वो सभी समीकरण फेल हो जाते हैं। कुछ गिनें चुनें प्रमुख चौराहो के अलावा पूरे कानपुर में यातायात व्यवस्था का कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता हैं। जिन छोटे चौराहों तथा नाकों पर यातायात व्यवस्था रखी गई हैं। वहां ट्रैफिक पुलिस, सिपाही व होमगार्ड किसी पेंड़ की छांव में बैठें कर धूम्रपान का आनंद उठाते देखे जाते हैं। वो अपनी हरकत में तभी आते हैं जब वहां जाम लग जाता हैं या फिर उनको पता होता है कि कोई अधिकारी यहां से गुजरने वाला है। इसके बाद यातायात सामान्य हो जाने पर वो पुन: अपने आंनद में डूब जाते हैं।
यातायात व्यवस्था ध्वस्त होने का एक और मुख्य कारण यह भी है कि सिपाहियों और होमगार्डों को अपना जेब खर्च भी ड्यिूटी के समय निकालना होता है। ये लोग प्राय: उन नवजवान लड़कों की तलाश में रहते हैं जिनके पास कुछ पैसे होने की सम्भावना उनके लगती है या फिर नये वाहन होते हैं और उनको देखकर यह आभास होता है कि ये कम से कम १००-२०० दे सकता है। पहले तो ये लाइसेंस मांगते हैं, लाइसेंस होने पर गाड़ी के कागज मांगते हैं, वो भी हों तो गाड़ी का मीटर सही है या नहीं, गाड़ी की सभी लाइटें सही हैं या नहीं वगैरह-वगैरह....। कुछ भी करके उनको अपना खर्चा निकालना होता है। चूंकि सिपाहीगण इस काम में व्यस्त रहते हैं तो जिन चौराहों पर सिपाहियों की तैनाती होती है वहां भी जाम लगने लगता है। फिर ये कुछ अपनी हरकत में आ जाते हैं और ड्यिूटी पर तैनात दिखाई देने लगते हैं। पर कुछ समय के लिये। जाम कम होते ही ये फिर अपने-अपने काम में लग जाते हैं।
टैम्पो, विक्रम, ट्रैक्टर, ट्रक आदि जैसी गाडिय़ों का तो इनका फिक्स चार्ज होता है। अगर यहां से गुजरना है तो इतना...इतना...इतना देना है। अगर कोई टैम्पो दिन में चार बार एक स्थान से गुजरती है तो टैम्पो चालक को चार बार गैर कानूनी टैक्स (रिश्वत) देना होता है।
इस प्रकार से इनके पूरे दिन का शाही भोजन व खर्चवाहन चालक पूरा करते हैं। ये सरकार से वेतन केवल बैठने का और कामचोरी का लेते हैं।
अगर इसी तरह ये आंनद लेते रहेगें तो उन वाहन चालकों का क्या होगा जिन्हें ये भी नहीं पता कि अपने घर से मात्र २० किमी. जाने में वो अपने घर वापस सही सलामत आ पायेंगें या यातायात व्यवस्था की भेंट चढ़ जायेंगे।
रात लगभग दस के बाद नो इंट्री खुलने के ट्रक, टैण्कर जैसे बड़े वाहन इतनी तेजी से निकलते हैं कि अगर कोई सामने आ जाये तो वह बच नहीं सकता। उसको अपनी जान गंवानी पड़ती है। वह भी क्या करें अगर वह सामान्य गति अर्थात निर्धारित गति से चलेंगे तो उनको सिपाहीगण जगह-जगह पर रोक कर अपना गैर कानूनी टैक्स यानी रिश्वत वसूलते हैं। यह टैक्स प्रति वाहन २० से ५० रुपये तक होता है किसी-किसी से १०० तक मिल जाये तो कोई मनाही नहीं है। इनके २० रुपये, ५० रुपये के लालच में आम जनता को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। क्योंकि सिपाहियों से बचने के लिये यह जरूरत से ज्यादा तेजी से चलते हैं और ऐसी स्थिति में दुर्घटनाओं की सम्भावना बढ़ जाती है।
पता नहीं कब सुधरेगी यातायात व्यवस्था और शहर के यातायात को नियंत्रित रखने वाली ये कानून व्यवस्था। ऐसी स्थितियों में तो सड़क पर चलना सिर्फ भगवान भरोसे है।
आग एक, रूप अनेक
आग एक, रूप अनेक
आग, जिससे हर पल तपता है समाज...
'आग' आग का मतलब क्या होता है? आग किसे कहते हैं? आग क्यों होती है? यह आग क्या, क्यों और किसे, किस-किस रूप में नुकसान पहुंचाती है? क्या कभी सोचा है आपने...? आग कोई भी हो, कैसी भी हो, लेकिन होती तो वो आग ही है।
अक्सर लोग आग लगने का मतलब यही लगाते हैं कि कहीं किसी क्षेत्र, परिवेश, घर, झोपड़ी, मकान, फैक्ट्री, गोदाम या किसी वस्तु विशेष में आग लगी और वह जल कर राख हो गयी। लेकिन आग का मतलब सिर्फ किसी वस्तु या पदार्थ का जलना नहीं होता बल्कि कुछ और भी होता है। आग के कई विकराल रूप भी हैं जिनसे हम बखूबी वाकिफ हैं।
आग बड़ी प्रबल होती है। आग का होना और न होना दोनों घातक माना जाता है। आग को सर्वशक्तिमान कहा गया है जिसमें सब कुछ स्वाहा हो जाता है 'काह न पावक सके, का न समुद्र समाय' कहा गया है। आग पेट की भी होती है और पानी की भी तथा काष्ठ की भी होती है। आग पानी की दुश्मनी है पर पानी में आग समाहित भी रहती है। आदमी का आग से जन्म से मृत्यु तक का साथ है।
आग लगाना अच्छा नहीं होता। होली की आग, चूल्हे की आग, पेट की आग और भट्ठी की आग अलग-अलग होती है। दिल की आग या तो प्रेम के कारण होती है अथवा दुश्मनी के कारण बनती है। कभी-कभी क्रोध में आंखें भी अंगारे बरसाने लगती है। वे आगे बबूला होकर चिनगारियों और लपटों में बदल जाती हैं। दुश्मनी की आग बुझाने का काम समझदार और सहनशील लोग करते हैं, पर अवसरवादी दुर्जन तो आग में घी डालकर बढ़ाने की चेष्टा करते हैं। आग को हवा देना किसी के लिये अच्छा नहीं है। आग किसी को छोड़ती नहीं। एक बार आग की लपटें उठीं तो वे जलाकर ही दम लेती हैं। आग की लपटें किसी को भी नहीं बख्सती हैं। चाहे वह किसी भी श्रेणी में आता हो। आग आग होती है उसका काम जलाना अर्थात सब कुछ बरबाद कर देना होता है।
अत: आग लगाकर पानी को दौडऩा न बुद्धिमानी है और न मनुष्यता। ऐसे लोग पाखंडी होते हैं। कई लोग तो जलती आग में अपने हाथ सेंकने तथा रोटी सेंकने से भी नहीं चूकते हैं। उन्हें किसी के दुख दर्द में कोई सहानुभूति नहीं होती है। उनके लिये स्वार्थ ही सर्वोपरि होता है। कुछ लोग आग लगाकर दूर से तमाशा भी देखते हैं। एक दूसरे को आपस में लगवाकर उनमें आपस में दुश्मनी करवा देते हैं और ऐसा कर वह अपना मतलब सीधा कर लेते हैं। उनकी आपसी लड़ाई का ये बखूबी फायदा उठाते हैं। हमें इन्हें पहचानना होगा। अन्यथा हमारा समाज कभी भी शांतिपूर्वक नहीं रह पायेंगे।
कुछ लोग जरा-सी बात को जंगल की आग की तरह फैलाते हैं। ऐसी बातों को अफवाहें भी कहते हैं। जंगल की आग अपना-पराया नहीं पहचानती। जलती आग की धधकती लपटें सबको अपने में समेट कर ख़ाक कर देती हैं। आदमी तेज बुखार से भी आग की तरह तपता है और किसी भीतरी आघात अथवा अपमान से भी तपता रहता है। भीतर की यह आग दुश्मनी का रूप ग्रहण कर लेती है। विरहणियों (प्रेमिकाओं)के लिये तो चन्द्रिका की किरणें और चांदनी भी आग बन जाती है। बहुतेरी प्रेमिकाओं को चन्द्रमा ने भस्म कर दिया। प्रेम के प्रभात से नायक नायिकायों की आँखें अग्निवाण का काम करने लगती हैं। आग की कहानियों से हमारा साहित्य भरा हुआ है। पेट की आग सबसे भयानक और खतरनाक होती है, यह आदमी से न जाने क्या-क्या, उचित-अनुचित कार्य कराती रहती है। पेट की आग मान-अपनान से परे बन जाती है। जब तक पेट की आग शांत नहीं हो जाती तब तक न घर अच्छा लगता है, न घर के लोग, न परिवार के लोग, न ही मित्र, न ही सहयोगी। यहां तक कि उसके अपने खुद के बच्चे भी कुछ क्षणों के लिये पराये से हो जाते हैं। क्या करें यह पेट की आग है ही कुछ ऐसी। इसीलिये कहावत भी कही गयी है कि -
'भूखे भजन न होहिं गोपाला, या लेव अपनी कण्ठी-माला।'
जिन नौजवान युवकों के भीतर सम्मान, स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम की आग नहीं होती, उनका जीवन बेकार है। अन्तरात्मा की आग व्यक्ति को शाक्तिमान और साधन-सिद्ध बनाती है। इसलिये सर्जना और साधना की आग को बनाये और उसे सुलगाये रहना चाहिये। आग का ठंडा होना जीवन की समाप्त का द्योतक है। जो आग की पूजा करते हैं, आग से नहीं डरते, वे ही जीवन में अविस्मरणीय कार्य करते हैं। इसीलिये स्वर्गीय दुष्यंत त्यागी ने कहा था-
'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही।
हो कहीं भी आग, लेकिन आग होनी चाहिये।'
प्यार और भूंख में अलंकार भी आग बन जाते है। आग धधकाने में भी समय लगता है और धधकती आग को ठंडा करना भी इतना आसान नहीं होता। कई बार तो हवन करने में भी हाथ जल जाते हैं। निर्भीक बलिदानी और बहादुर लोग अंगारों से खेलते हैं। वे दूसरों को आग में झोंकने की बजाय आग को अपनी मजबूत मुट्ठियों में बन्द कर लोगों को प्रेरित करते हैं। वाणी से आग उगलते रहने की बजाय हमें दूसरों की आग शांत करना चाहिये। आग की तरह खौलते रहना अच्छा नहीं होता। शांति से विचार करना सार्थक और रचनात्मक होता है। किसी कवि ने कहा भी है कि:-
'जब भूख की आंधी आती है तो,
अच्छा-बुरा
ईमान-धरम
अपना-पराया
सब कुछ उड़ा ले जाती है
टूट जाते है सब बंधन
कड़ी बस एक
पेट और मुहँ की
शेष रह जाती है।'
लेबल:
आग,
जिससे हर पल तपता है समाज..
भारतीय संस्कृति की एक धरोहर
हिन्दी भाषा: भारतीय संस्कृति की एक धरोहर है
भारत को मुख्यता हिन्दी भाषी माना गया है। हिन्दी भाषा का उद्गम केन्द्र संस्कृत भाषा है। लेकिन समय के साथ संस्कृत भाषा का लगभग लोप होता जा रहा है। यही हाल हिन्दी भाषा का भी हो सकता है अगर इसके लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं किये गये तो। भारतीय संविधान के तहत सभी सरकारी और गैर सरकारी दफ्तरों में हिन्दी में कार्य करना अनिवार्य माना गया है। लेकिन शायद ही कहीं हिन्दी भाषा का प्रयोग दफ्तर के कायों में होता हो। हर क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का बोलबाला है। किसी को अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं तो उसको नौकरी मिलना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी होता है। जबकि यह गलत कृत्य है सरासर भारतीय संविधान के कानून की अवहेलना है।
भारत वर्ष में प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस १४ सितम्बर को मनाया जाता है। १४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् १९५३ से संपूर्ण भारत में १४ सितंबर को भारत में प्रति वर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन सिर्फ भारत में ही १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है।
विश्व हिन्दी दिवस प्रति वर्ष १० जनवरी को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी में व्याख्यान आयोजित किये जाते हैं।
जब भारत देश स्वतंत्र हुआ था तब भारतवासियों ने सोचा होगा कि उनके आजाद देश में उनकी अपनी हिन्दी भाषा, अपनी संस्कृति होगी लेकिन यह क्या हुआ? अंग्रेजों से तो भारतवासी आजाद हो गए पर अंग्रेजी ने भारतवासियों को जकड़ लिया।
भारतीय संविधान के अनुसार हिन्दी भाषी राज्यों को अंग्रेजी की जगह हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। महात्मा गांधी के समय से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति दक्षिण भारत नाम की संस्था अपना काम कर रही थी। दूसरी तरफ सरकार स्वयं हिन्दी को प्रोत्साहन दे रही थी यानी अब हिन्दी के प्रति कोई विरोधाभाव नहीं था।
अंग्रेजी विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रमुख भाषा है। लेकिन भारतवासियों को अंग्रेजी का प्रयोग पूरी तरह खत्म कर देना चाहिये। क्योंकि यह सच है कि यह हमें साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली है।
अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भारत वर्ष में हिन्दी भाषा की अपेक्षा कहीं अधिक ज्यादा किया जाता है। लेकिन क्यों? भारत वर्ष हिन्दी भाषी राष्ट्र है। उसको हिन्दी के प्रचार व प्रसार पर ध्यान देना चाहिये। वैसे इस विषय में हमारे कुछ बुद्धिजीवियों ने गहन विचार-विमर्श कर हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार व प्रयोग इंटरनेट के माध्यम से करना शुरू कर दिया है। हिन्दी भाषा का प्रयोग वर्तमान में ब्लाग पर खूब किया जा रहा है। कई वेबसाइट भी हैं जो हिन्दी भाषा में हैं। यह एक सार्थक प्रयास है हिन्दी भाषा की प्रगति एवं उत्थान के लिये।
अंग्रेजी के इस बढ़ते प्रचलन के कारण एक साधारण हिन्दी भाषी नागरिक आज यह सोचने पर मजबूर है कि क्या हमारी पवित्र पुस्तकें जो हिन्दी में हैं, वह भी अंग्रेजी में हो जाएंगी। हमारा राष्ट्रगीत, राष्ट्रगान, हमारी पूजा-प्रार्थना सब अंग्रेजी में हो जाएंगे। हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। लेकिन वर्तमान में जो नई पीढ़ी जन्म ले रही है उसको बचपन से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में शिक्षा ग्रहण के लिये भेज दिया जाता है। वह बचपन से ही अंग्रेजी भाषा को पढ़ता व लिखता है और उसी भाषा को अपनी मुख्य भाषा समझने लगता है। क्योंकि उसको माहौल ही वैसा मिलता है। इसमें उसकी क्या गलती। लेकिन किसी न किसी की गलती तो है ही। इस विषय में हमें विचार करना चाहिये। क्या इस प्रकार के रवैये से हमारी यह उम्मीद कि 'हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलान ' कभी संभव हो पाएगा।
हिन्दी भाषा भारतीय संस्कृति की एक धरोहर है जिसे बचाना भारतवासियों का परमकत्र्तव्य होना चाहिये। वर्तमान में हिन्दी भाषा का प्रयोग न कि भारत में बल्कि भारत के बाहर के कई देशों में भी किया जा रहा है। ध्यान, योग आसन और आयुर्वेद विषयों के साथ-साथ इनसे सम्बन्धित हिन्दी शब्दों का भी विश्व की दूसरी भाषाओं में विलय हो रहा है। भारतीय संगीत चाहे वह शास्त्रीय हो या आधुनिक हस्तकला, भोजन और वस्त्रों की विदेशी मांग जैसी आज है पहले कभी नहीं थी। लगभग हर देश में योग, ध्यान और आयुर्वेद के केन्द्र खुल गए हैं। जो दुनिया भर के लोगों को भारतीय संस्कृति की ओर आकर्षित करते हैं। ऐसी संस्कृति जिसे पाने के लिए हिन्दी के रास्ते से ही पहुंचा जा सकता है। हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार व इसके प्रयोग को बल देने के लिये कई महापुरुषों ने अपने मत इस प्रकार दिये:-
महात्मा गाँधी : कोई भी देश सच्चे अर्थो में तब तक स्वतंत्र नहीं है जब तक वह अपनी भाषा में नहीं बोलता। राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है।
काका कालेलकर : यदि भारत में प्रजा का राज चलाना है तो वह जनता की भाषा में ही चलाना होगा।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस : प्रांतीय ईष्र्या-द्वेष दूर करने में जितनी सहायता हिन्दी प्रचार से मिलेगी, दूसरी किसी चीज से नहीं।
लालबहादुर शास्त्री : राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा हिन्दी ही हो सकती है।
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन : हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। हिन्दी राष्ट्रीयता के मूल को सींचकर दृढ़ करती है।
रेहानी तैयबजी : हम हिन्दुस्तानियों का एक ही सूत्र रहे- हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी हमारी लिपि देवनागरी हो।
महर्षि दयानंद सरस्वती : हिन्दी द्वारा सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय : यदि हिन्दी की उन्नति नहीं होती है तो यह देश का दुर्भाग्य है।
अनन्त गोपाल सेवड़े : राष्ट्र को राष्ट्रध्वज की तरह राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है और वह स्थान हिन्दी को प्राप्त है।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक : राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं। मेरे विचार में हिन्दी ही ऐसी भाषा है।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी : यदि भारतीय लोग कला, संस्कृति और राजनीति में एक रहना चाहते हैं तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है।
लाला लाजपत राय : राष्ट्रीय मेल और राजनीतिक एकता के लिए सारे देश में हिन्दी और नागरी का प्रचार आवश्यक है।
डॉ. भगवान दास : हिन्दी साहित्य चतुष्पुरुषार्थ धर्म-अर्थ काम-मोक्ष का साधन है और इसीलिए जनोपयोगी भी है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र : निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
मोरारजी देसाई : हिन्दी को देश में परस्पर संपर्क भाषा बनाने का कोई विकल्प नहीं। अँग्रेजी कभी जनभाषा नहीं बन सकती।
महादेवी वर्मा : हिन्दी प्रेम की भाषा है।
महाकवि शंकर कुरूप : भारत की अखंडता और व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए हिन्दी का प्रचार अत्यन्त आवश्यक है।
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