शनिवार, 8 अगस्त 2009

एक सच यह भी है ...

देश आजाद है लेकिन देशवासी नहीं


हमारा देश आज कितना आगे निकल बुलंदियों को छू रहा है. देश में बड़े-बड़े औद्योगिक कारखाने, जो अपने उत्पादन का लोहा पूरी दुनिया से मनवा रहे हैं. देशवासियों को हर तरह कि सुविधा मुहैया करवाई जा रही है. यहाँ तक कि देश में छठा वेतन आयोग भी लागू हो जाने से देशवासियों का बहुत भला हुआ. सब खुश हैं. सब तरक्की के रस्ते कि ओर बढ़ रहे हैं. इतना सब कुछ होने के बाद एक सच यह भी है कि देश में करोड़ों लोग आज भी तरक्की से दूर पड़े, पेट में भूख लिए, क्षेत्रवाद, जातिवाद गरीबी का दंश झेलते हुए उम्मीद कर रहे हैं कि उन्हें वास्तविक आजादी मिलेगी और न्याय उनके दरवाजे तक भी पहुचेगा। इसके लिये कथनी और करनी के अंतर को दूर करना होगा। स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। जातिधर्म के दंभ को त्याग कर सिर्फ भारतीय बनना होगा।
हम देश की अर्थ व्यवस्था पर नजर डालें तो दृष्टिगोचर होता है कि यह कुछ चंद लोगों की मुटठी में कैद है। आम आदमी आश्वासन की खुराक पर जी रहा है। शहीदों के सपने बिखर चुके हैं। सत्ता अपराधियों के कब्जे में जा रही है। विधायिका एवं कार्यपालिका पर अंकुश कसने के लिये न्याय पालिका तो है पर न्याय आज इतना महंगा हो गया है कि आम जनता को उपलब्ध नहीं है। नतीजन वह शोषण अत्याचार सहने को मजबूर हैं। पत्रकारिता से उम्मीद थी, अभी भी है और रहेगी भी, पर उसको लेकर भी रह-रहकर उठते सवाल जन समान्य में और अधिक भय पैदा कर देते हैं। भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार के समंदर से समाजवाद रूपी गंगा के निकलने की उम्मीद थी पर वह भी उम्मीद रौंंदी जा चुकी है। आज आजादी के 62 बरस बाद भी समानता का दीप नहीं जल सका।
जहां तक दलित की प्रगति का सवाल है तो आजादी के बासठ साल बाद भी दलित समाज अपनी तरक्की से बहुत दूर है। सचमुच यह गंभीर चिंतन का विषय है। देश की बड़ी जनसंख्या के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार लोकतंत्र पर आघात है। दुख की बात यह है कि इसमें वो भी शामिल हैं जो खुद दलित हैं और उनकी गरीबी और लाचारी से मुक्ति की लड़ाई लडऩे के दावे करते घूम रहे हैं। आजादी के असली सपने को पूरा करना है तो निजी स्वार्थ से ऊपर उठना होगा। दायित्वों एवं देश धर्म पर खरा उतरना होगा। यह उनके लिए विशेष रूप से है जो दलित समाज में जन्मे हैं और अपने से निचले वर्ग की उपेक्षा करते हैं। उन्हें समानता के भाव को प्राथमिकता देकर विकसित करना होगा। जातिवाद खत्म करना होगा। गरीबों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराना होगा। शिक्षा एवं समुचित रोजगार के बन्दोबस्त करने होंगे। दलित वंचितों शिक्षितों को सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थानों में प्राथमिकता के आधार पर रोजगार उपलब्ध कराना होगा।
स्वामी विवेकानन्द ने भी आमजनों की दुर्दशा देखकर पीड़ा का एहसास किया था। उन्ही के शब्दों में-जब मैं गरीबों के बारे में सोचता हूं तो मेरा हृदय पीड़ा से कराह उठता है। बचने या ऊपर उठने का उनके पास कोई अवसर नहीं है। वे लोग हर दिन नीचे और नीचे धंसते जाते हैं। वे समाज के वारों को निरंतर झेलते जाते हैं। वे यह भी नहीं जानते कि उन पर कौन वार कर रहा है, कहां से कर रहा है। वे यह भी भूल चुके हैं कि वे स्वयं भी मनुष्य हैं। इन सबका परिणाम है गुलामी। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के इतने बरसों के बाद भी गरीब वंचित खेतिहर भूमिहीन मजदूर वही जहर आज भी पीने को मजबूर है। हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज भी देश में राष्ट्र क्या है एक दिशाहीन मुद्दा बना हुआ है। यहां के लोग जाति धर्म के नाम से जाने पहचाने जाते हैं।

देश तो बनता है संस्कृति ,परम्पराओं और देश के निवासियों की असंदिग्ध निष्ठा से, पर देश के निवासियों में सर्वप्रथम निष्ठा तो जाति धर्म के प्रति प्रतीत होती है। सांस इस देश में भरते है गुणगान विदेश का करते हैं। ये कैसा राष्ट्र प्रेम है? इस मनोदशा को बदलना होगा समृद्धशाली और सामर्थवान भारत की रचना करनी होगी। स्वतंत्र भारत के 62 बरसों के बाद भी गौरवमयी इतिहास पर खून के धब्बे आज भी विराजमान हैं, कुछ कराहते हैं, आज भी जीवनयापन के साथ आत्म सम्मान के लिये संघर्षरत हैं, जिनकी कराह देश की नींद में दाखिल है परन्तु सत्ताधीशों की नींद नहीं टूट रही है। बांसठ साल की आजादी के बाद भी सुलगते इन सवालों का समाधान खोजकर लोकतंत्र के पहरेदार अपने दायित्वों पर खरे उतरेगे और आम जनता आश्वासनों की आक्सीजन पर नहीं बल्कि विकास की राह पर दौड़ेगी। इसी आशा पर हम जैसे माध्यम श्रेणी के लोगों को जीना सीख लेना चाहिए। हम जैसे माध्यम श्रेणी के लोगों के पास सिर्फ सपने देखने के अलावा कोई रास्ता फिलहाल तो नहीं नजर आता है। देश आजाद हो गया लेकिन लगभग ७५ % देशवादी अभी भी अपनी आजादी के लिये तरह रहे हैं। पता नहीं वह दिन कब आयेगा...?

क्या यही आजादी है...

'आजादी' यह रामुओं के लिये नहीं है...

आजादी! आखिर क्या है आजादी? कहां है आजादी? किसके पास है आजादी? कौन है आजादी? रामू जैसे कई लोग जानते ही नहीं कि 'आजादी' क्या है। और जाने भी क्यों! उनको तो अपनी मजबूरी, अपनी मजदूरी से ही समय नहीं मिलता है। रामू जैसे लोगों को अपने हक की बात करने तक का अधिकार इस आजादी में नहीं हासिल है। बात कहने का क्या उन्हों तो सोचने का भी हक नहीं है। अगर वे लोग ऐसा करते या करने की सोचते भी हैं तो हमारे आजाद भारत के आजाद पुलिस के सिपाही जेल में बन्द कर देते हैं और कोई ज्यादा बोलता है तो उसे दुनिया से ही आजाद कर देते हैं।
रामू जैसे लोगों को इस दुनिया में रहने से आजादी नहीं बल्कि इस दुनिया को छोडऩे से आजादी नसीब होती है। ऐसे ही एक रामू अपने बच्चों को लिये हुए जा रहा है। तभी एक जानने वाले ने कहा कि कहां जा रहे हो रामू, इन बच्चों को लिये। रामू बोला-'पंद्रह अगस्त के लिए तिरंगे झंडे की जिद कर रहे हैं। दुकान पर कागज वाला झंडा दिलाने जा रहा हूं। रामू अपने बच्चों को अलग-अलग झंडे दिला लाया, पूछा तो बताया कि दो रुपए का एक मिला है। तिरंगे झंडे और देश की चाह के सामने उस समय इस गरीब की गरीबी का चेहरे पर कोई भाव नहीं था। लेकिन हम जैसों के लिए वह एक विचार जरूर छोड़ गया कि आजादी से आज तक बहुत कुछ बदला लेकिन रामू के जैसे लोग वहीं के वहीं हैं। उनको अपनी गरीबी से आज़ादी का नंबर अभी तक नहीं आया? स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस इनके समारोहों में रामू जैसे गरीबों और उनके बच्चों के ही हाथों में खुशी से झंडे लहराते हुए समारोह की शोभा बढ़ाते दिखाई देते हैं। कुर्सियां औरों के लिए ही लगाई जाती हैं। उस दिन के जश्न की असली शोभा वहीं होते हैं लेकिन वास्तव में वह जश्न इनके लिए नहीं होता। उस दिन भी अमीरी-गरीबी में बड़ा ही भेदभाव। इस मौके पर बहुत सारे फल- मिठाइयां तो आते हैं लेकिन लेकिन वह सिर्फ उनके लिये होते हैं जो कि मंच पर पड़े सोफे पर बैठे होते हैं और सामने की कुर्सियों पर। रामू के जैसे लोगों के बच्चों के लिये नहीं। उनको अपने बच्चों के लिए रास्ते से ही लड्डू या केले जरूर खरीदकर देने होते हैं नहीं तो वह अपने बच्चों के इस सवाल का जवाब नहीं दे पाएंगे कि जब वहां सबको लड्डू व फल मिल रहे थे तो हमें क्यों नहीं मिले?
हर साल स्वतंत्रता के जश्न के ऐसे आयोजनों की 15 अगस्त या 26 जनवरी को धूम तो दिखाई पड़ती है, लेकिन वह वास्तविक धूम नहीं होती। वह एक प्रकार की रस्मअदायगी सी दिखाई पड़ती है। गंधाते हुए भाषण और सड़े हुए फल, यही सच्चाई है इन आयोजनों की। इसलिए ऐसे आयोजनो का आंतरिक भाव लुप्त होता जा रहा है। सच्ची अनुभूति तो वह होती हैं जो सर्वत्र क्षण महसूस की जा सके। स्वतंत्रता का अनुभव आजादी के इतने सालों के बाद भी आम गरीब शोषित पीडि़त जनता को तो नहीं हुआ है। हो भी कैसे सकता हैं? कितने रामू जैसे गरीब लोग आज भी रोटी-रोजी की तलाश में दर-दर भटकते हैं। जातिवाद, धर्मवाद, महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा, सामाजिक, आर्थिक कुव्यवस्था जैसी मुश्किलों से वे वैसे ही जूझ रहे हैं। जब तक ये जूझते रहेंगे तब तक ये खुद को कैसे स्वतंत्र मान लें?
आज के प्रगतिशील युग में भी सामाजिक बुराइयां शोषित पीडि़त वंचित जनता के जीवन में काफी दुखदायी हैं। सही मायने में यही बुराइयां ही असली आजादी का एहसास नहीं होने देती हैं। सबको आजादी का एहसास होगा लेकिन उसके लिये समानता के भाव को विकसित करना होगा। जातिवाद खत्म करना होगा। रामू जैसे गरीबों को रोजगार के साधन उपलब्ध कराने होंगे। शिक्षा एवं समुचित रोजगार के बंदोबस्त करने होंगे। भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को खेती की जमीन देनी होगी। सत्ताधारियों को बिना किसी भेदभाव के आमजनों की समस्यों का निराकरण करना होगा। तभी आम आदमी की आंखों में चमक आ सकेगी। हमारे देश की आधी से ज्यादा जनता झोपडियों में बसती है। ये लोग युग-युग से चुपचाप अपना काम करते आ रहे हैं। ये ही इस देश की समस्त संपदा के असली उत्पादक हैं। दुर्भाग्यवश आजाद देश में यही लोग शोषण उत्पीडऩ के शिकार हैं और स्वतंत्रता से बहुत दूर पड़े हुए है। इनकी चौखटों पर आज भी भूख लाचारी का रोज ही ताडंव होता है।
जिस देश के पढ़े लिखे युवक दुनियां को अपने ज्ञान का लोहा मनवा रहे हैं, जिस देश में उच्च पदों से लेकर अतिनिम्न पदों के लिये शैक्षणिक योग्यता निर्धारित है और उनके रिटायरमेंट की अवधि तक निर्धारित है उस देश में लोकतंत्र के नाम पर अल्पशिक्षित लोग देश के सर्वोच्च पदों तक पहुंच जा रहे हैं। सासंद विधायक बन रहे हैं, कब्र में पैर लटकाये हुए भी मंत्री तक के पदों पर बैठे हैं। क्या यह सर्वसमाज की शिक्षित प्रतिभाओं के साथ छल नहीं? इस अन्याय को न्याय का रूप कौन देगा? क्योंकि इस प्रक्रिया में बदलाव सत्तासुख से विमुख कर सकता है और मरने के बाद राजकीय सम्मान के साथ दाह संस्कार की सुविधा में भी अड़चने खड़ी हो सकती हैं।

सोमवार, 3 अगस्त 2009

सरकार जिम्मेदार पर विभाग नहीं?


आम जनता की पहुंच से मीलों दूर 'मिड डे मिल'

परवाह तो अपनी है मासूमों की किसे है...


मिड डे मिल योजना सरकार की एक अति सराहनीय योजना एवं बहुउद्देशीय योजना है। लेकिन किसी योजना का लाभ उस अमुक व्यक्ति को मिल रहा है जिसको मिलना चाहिये, यह भी ध्यान में रखने का काम सरकारी विभाग के कर्मचारियों का है। उक्त योजना पर अमल हो रहा है या नहीं, कोई इसमें कोताई तो नहीं कर रहा है, ये सब देखना और इसमें हो रही धोखाधड़ी को रोकना सरकारी विभाग के कर्मचारियों की जिम्मेदारी है? लेकिन ऐसा नहीं कि यह सिर्फ सरकारी विभाग का ही काम है आम जनता को भी इसके काम में हो रही कोताही को रोकने का और उसकी लिखित शिकायत करने का अधिकार प्राप्त है।
1995 में मध्यान्ह भोजन योजना प्रारम्भ हुयी थी। उस समय प्रत्येक छात्र को इस योजना के अंतर्गत हर माह तीन किलोग्राम गेहूं या चावल उपलब्ध कराया जाता था। केवल खाद्यान्न उपलब्ध कराये जाने से बच्चों का स्वास्थ्य एवं उनकी स्कूल में उपस्थिति पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा।
बच्चों को इस योजनान्तर्गत विद्यालयों में मध्यावकाश में स्वादिष्ट एवं रूचिकर भोजन प्रदान किया जाता है। इससे न केवल छात्रों के स्वास्थ्य में वृद्धि होती है अपितु वह मन लगाकर शिक्षा ग्रहण भी कर पाते हैं। इससे बीच में ही विद्यालय छोडऩे (ड्राप आउट) की स्थिति में भी सुधार आया है। भारत सरकार द्वारा निर्देशित किया गया था कि बच्चों को समस्त प्रदेशों में मध्यान्ह अवकाश में पका-पकाया भोजन उपलब्ध कराया जाये।
कतिपय कारणों से इस योजना के अंतर्गत पका-पकाया भोजन उत्तर प्रदेश में सितम्बर, 2004 तक नहीं दिया जा सका। विद्यालयों में पका-पकाया भोजन उपलब्ध कराने के सम्बन्ध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका संख्या 196/2001 पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम् यूनियन आफ इण्डिया एवं अन्य में दिनांक 28-11-2001 को भारत सरकार को निर्देशित किया था कि 3 माह के अन्दर सरकार प्रत्येक राजकीय एवं राज्य सरकार से सहायता प्राप्त प्राइमरी विद्यालयों में पका पकाया भोजन उपलब्ध कराये। इस भोजन में 300 कैलोरी ऊर्जा तथा 8-12 ग्राम प्रोटीन उपलब्ध होगा और यह भोजन वर्ष में कम से कम 200 दिनों तक उपलब्ध कराया जायेगा। माननीय न्यायालय ने यह भी निर्देशित किया है कि योजना के अंतर्गत औसतन अच्छी गुणवत्ता का खाद्यान्न उपलब्ध कराया जायेगा। उत्तर- प्रदेश में दिनांक 01 सितम्बर, 2004 से पका-पकाया भोजन प्राथमिक विद्यालयों में उपलब्ध कराने की योजना आरम्भ कर दी गयी है। वर्तमान में भारत सरकार द्वारा मानकों में परिवर्तन करते हुए यह निर्धारित किया गया है कि उपलब्ध कराये जा रहे भोजन में कम से कम 450 कैलोरी ऊर्जा 12 ग्राम प्रोटीन उपलब्ध हो। मध्यान्ह भोजन योजना कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्य प्रदेश सरकार शिक्षा की विभिन्न योजनाओं में अत्यधिक पूंजी निवेश कर रही है। इस पूंजी निवेश का पूर्ण लाभ तभी प्राप्त होगा जब बच्चे कुपोषण से मुक्त होकर अपनी पूर्ण क्षमता से शिक्षा निर्बाध रूप से ग्रहण करते रहें। मध्यान्ह भोजन योजना इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण कड़ी है। सरकार का मानना है कि इस योजना के माध्यम से शिक्षा के सार्वभौमीकरण के निम्न लक्ष्यों की प्राप्ति होगी-

  1. प्राथमिक कक्षाओं के नामांकन में वृद्धि।
  2. छात्रों को स्कूल में पूरे समय रोके रखना तथा विद्यालय छोडऩे की प्रवृत्ति (ड्राप आउट) में कमी।
  3. निर्बल आय वर्ग के बच्चों में शिक्षा ग्रहण करने की क्षमता विकसित करना।
  4. छात्रों को पौष्टिक आहार प्रदान करना।
  5. विद्यालय में सभी जाति एवं धर्म के छात्र-छात्राओं को एक स्थान पर भोजन उपलब्ध करा कर उनके मध्य सामाजिक सौहार्द, एकता एवं परस्पर भाई-चारे की भावना जागृत करना।

सवालों के घेरे में मिड डे मिल



भारत सरकार और प्रदेश सरकार के समवेत प्रयास से गरीब बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन योजना 15 अगस्त 1955 को लागू की गई थी जिसमें मुख्य भूमिका केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की रही। इसके अंतर्गत कक्षा 1 से कक्षा 5 तक के सभी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को दोपहर में भोजन देने का प्रावधान किया गया था, चाहे संबंधित विद्यालय राज्य सरकार, परिषद अथवा अन्य सरकारी निकायों द्वारा संपोषित हो। सरकार ने मिड डे मिल के लिए काफी धन आवंटित किए और विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से प्राथमिक और अब कई माध्यमिक विद्यालयों में इसको लागू किया। कागजों में भले ही योजना सफल बताई जाए लेकिन वास्तविकता के धरातल पर आते ही इसके इर्द-गिर्द अनेक सवाल खड़े हो जाते हैं। विभिन्न रिपोर्ट बताते हैं कि जिन इलाकों में इस योजना की सबसे अधिक जरूरत थीं, उन्हीं इलाकों में यह धराशायी हो रही है, वहीं सबसे ज्यादा अनियमितता है। बच्चों को खाना नहीं मिल रहा है, लेकिन इसके लिए दोषी कौन है? सरकार सरकारी विभाग के वे लोग जिनको इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है।
विभागीय कर्मचारियों की लापरवाही, कामचोरी और रिश्वतखोरी के चलते इस योजना का लाभ गरीब मासूम बच्चों को मिल पायेगा? इस विषय पर कुछ भी कहना मुनासिब नहीं होगा।
इस सरकारी तंत्र की गलतियों का हरजाना मासूम बच्चों को अपनी जान गंवा कर भरना होता है। उनके लिये जो भोजन पकाया जाता है उसमें पौष्टिकता स्वच्छता का अभाव होता है। कई बार तो सुनने में आता है कि बच्चों के भोजन में कीड़े, कंकड़ छिपकली तक पायी गयीं। अब ऐसे भोजन को ग्रहण करने वाले बच्चे मौत की गोद में नहीं जायेंगे तो कहां जायेंगे? जिनको समय पर इलाज की सुविधा उपलब्ध हो जाती है वह कभी-कभी बच भी जाते हैं। लेकिन क्या यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा, इस पर क्या कभी कोई सरकारी विभाग ध्यान नहीं देगा? इस सम्बन्ध में सभी खामोश हैं।
अभी पिछले दिनों पिठोरिया थाना क्षेत्र के कोल्हया कनान्डू ग्राम स्थित राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय में मिड डे मील के लिए पकी गरम दाल में गिरने से 7 वर्षीय बच्ची की मौत हो गयी। अफसरी परबीन नामक इस छात्रा के परिजनों ने बिना पोस्टमार्टम के बच्ची के शव को मंगलवार को दफना दिया। मामले में प्राथमिकी भी दर्ज नहीं की गयी। बाद में ग्रामीणों के उत्तेजित होने पर प्रशासन ने चुस्ती दिखाई। शिक्षकों को निलम्बन कर दिया गया। विद्यालयों एवं शिक्षा विभाग के कर्मचारियों के लापरवाही के कारण झारखंड में लगातार ऐसी घटनाएं कभी भोजन में छिपकली गिरना, तो कभी साँप एंव दूसरी जहरीली वस्तुओं का मिलना यहाँ आम बात हो गयी है। जिस कारण अनेक बच्चे बीमार हो गये और कइयों ने तो अपनी जान से भी हाथ धो दिया। यह हाल सिर्फ झारखण्ड का नहीं बल्कि कई ऐसी क्षेत्र हैं जिनमें ऐसी घटनाएं आये दिन होती रहती हैं। प्रशासन है कि चुप्पी साधे बैठा है। वह इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं देता है।
दरअसल, मिड डे मिल योजना को लागू करना सरकार की प्राथमिकता में नहीं था। मगर, स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा अत्यधिक जोर दिए जाने पार सरकार को इसे लागू करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
देश में सबसे पहले यह तमिलनाडु में लागू किया गया। इसके पीछे मकसद यह था कि जिन बच्चों को खाना नसीब नहीं हो पाता है, वे खाना के नाम पर ही सही स्कूलों में आएंगे और यदि आयेंगे तो उन्हें शिक्षा जरूर मिल जाएगी। कारण, देश में लाखों ऐसे परिवार हैं जो पेट की क्षुधा शांत करने के चक्कर में बच्चों को शिक्षित नहीं कर पाते हैं। लेकिन वर्तमान में यह योजना सुचारू रूप से लागू नहीं हो पा रही है।
गाँव देहात एवं गरीब बच्चों को शिक्षा की ओर आकर्षित करने और उन्हें सहायता प्राप्त करने का यह एक विवेकपूर्ण एवं सराहनीय प्रयास है, परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि इस योजना का शरारती तत्वों के द्वारा अनुचित उपयोग किया जाने लगा। झारखंड एवं बिहार जैसे भ्रष्ट राज्यों में इस योजना हेतु आवंटित राशि का बंदरबाँट शुरू हो गया।
स्वयंसेवी संस्था 'मंथन' के द्वारा कक्षा पांच से ऊपर के बच्चों पर किए गए सर्वेक्षण में यह देखने में आया है कि स्कूल के अधिकतर बच्चे सुबह का नाश्ता करके नहीं आते। वे बच्चे भूखे क्यों आते हैं, इसका कारण पूछने पर अधिकांश बच्चों ने इसका कारण गरीबी और परिवार की आर्थिक तंगी बताया।
ग्राम स्वराज अभियान द्वारा किए गए शोध के अनुसार पूरे देश में लगभग 20 प्रतिशत बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जो बच्चे स्कूल जाते हैं और जिन्हें मिड डे मिल योजना का लाभ मिल जाता है उसमें अल्पसंख्यक, दलित एवं आदिवासी बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। सर्वेक्षण में पाया गया कि 7 प्रतिशत स्कूलों में आपसी मतभेद योजना के सुचारू रूप ने चलने का कारण था, वहीं 9 प्रतिशत स्कूलों में शिक्षक ही उपलब्ध नहीं थे।
खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के आंकड़ों की जुबानी बात की जाए तो भी यही परिलक्षित होता है कि मिड डे मिल योजना के मद में सरकार द्वारा जितना अनाज आवंटित हुआ था उतना खर्च नहीं हो पाया। सरकारी गोदाम में लाखों टन अनाज धरे रह गए।
विभाग द्वारा साल 2001-02 में 18.67 लाख टन चावल और 9.96 टन गेहूं आवंटित था जबकि खर्च हुए महज 13.48 लाख टन चावल और 7.28 टन गेहूं इसी प्रकार साल 2002-03 में 18.84 लाख टन चावल और 9.40 टन गेहूं के एवज में 13.75 लाख टन चावल और 7.45 टन गेहूं, साल 2003-04 में 17.72 लाख टन चावल और 9.08 टन गेहूं के एवज में 13.49 लाख टन चावल और 7.20 टन गेहूं, साल 2004-05 में 20.14 लाख टन चावल और 7.35 टन गेहूं के एवज में 15.41 लाख टन चावल और 5.92 टन गेहूं, साल 2005-06 में 17.78 लाख टन चावल और 4.72 टन गेहूं के एवज में 13.64 लाख टन चावल और 3.63 टन गेहूं और साल 2006-07 (जनवरी तक ) में 17.17 लाख टन चावल और 4.17 टन गेहूं के एवज में 10.48 लाख टन चावल और 2.85 टन गेहूं खर्च हुए हैं।

इस प्रकार सरकार द्वारा जितना अनाज आवंटित किया जाता है, संबंधित विभागीय कर्मचारी उसका सदुपयोग नहीं कर रहे हैं। सर्वशिक्षा अभियान की तरह यह भी विभागीय अकर्मण्यता और उपेक्षा का शिकार होता जा रहा है। जिस पर अभी तक किसी भी विभागीय अधिकारी का ध्यान नहीं गया है।
ऐसे तो मिड डे मिल के संचालन की पूरी जिम्मेदारी ग्राम शिक्षा समिति के अध्यक्ष माता समिति की संयोजिका की होती है। लेकिन हाल के दिनों में मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी के कारण विभाग का कोड़ा इस कदर हेडमास्टरों एवं पारा शिक्षकों पर बरसा है कि सबने मध्याह्न भोजन को दुरुस्त करने की ठान ली है। विद्यालय के बाकी काम-काज भले ही हाशिये पर चला जाय लेकिन मध्याह्न भोजन में गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए। प्रधानाध्यापकों ने इसके लिए बकायदे एक शिक्षक को प्रतिनियुक्त कर दिया है। खाना बनने से लेकर बंटने तक उक्त शिक्षक अध्यापन से दूर रहते हैं। यदि देखा जाय तो एक शिक्षक को 20 से 25 हजार रुपए के बीच प्राप्त होते हैं। ऐसे में मध्याह्न भोजन की निगरानी में सरकार की मोटी रकम जा रही है। शिक्षक आते हैं पढ़ाने लेकिन उनका ध्यान मध्याह्न भोजन में ही लगा रहता है। अब सरकार तय करे कि क्या बच्चों का पेट भरना ही जरूरी है या बच्चे को एक कुशल नागरिक भी बनाना है। यदि सफल शिक्षित नागरिक बनाना है तो शिक्षकों को एमडीएम से अलग रखने की मांग को बार-बार हवा में क्यों उड़ाया जा रहा है।
सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मिल आदि जैसी कई योजनाओं के विज्ञापन पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है। लेकिन विभागीय कर्मचारी जिनको यह कार्य जिम्मेदारी से पूर्ण करने के लिये सौंपा गया है वह ऐसी बचकानी और लापरवाही पूर्ण हड़कतें करते हैं कि बच्चें स्कूलों में जाने से भी डरने लगें हैं। बच्चों के माता-पिता भी यह सोच रहे हैं कि उनका बच्चा स्कूल जा रहा है, पता नहीं सकुशल घर लौटेगा कि नहीं। ऐसे अकर्मन्य लापरवाह लोगों के प्रति सरकार को कठोर से कठोर कदम उठाना चाहिए, ताकि सरकार की ऐसी योजनाओं का सदुपयोग हो सके और शिक्षा विभाग की गुणवत्ता में सुधार आये।

जरा इन बातों पर भी दीजिये ध्यान...
  1. मिड डे मिल योजना के अन्तर्गत जो खाना पकाया फिर उसको बच्चों को वितरित किया जाता है उसकी गुणवत्ता तथा पौष्टिकता पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
  2. खाना पकाने और परोसने वाले क्षेत्र में सफाई सम्बन्धी कड़े नियम लागू किए जाने चाहिए।
  3. पिछले दिन के बचे हुए खाने को अगले दिन परोसने पर नियंत्रण होना चाहिए। (स्वास्थ्यकर आहार को ज्यादा समय नही रखा जा सकता, खासकर जहां मौसम ज्यादा गर्म हो।)
  4. वसा तेलों की गुणवत्ता की निगरानी की जानी चाहिए ट्रांसफैटी एसिड्स के इस्तेमाल पर रोक लगा देनी चाहिए।
  5. जहां कहीं भी संभव हो साबुत अनाज और दालों का मिड डे मील्स में इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
  6. मौसमी सस्ते और बिना कटे फल भी दिए जा सकते हैं।
  7. खाने को तैयार करते समय रंगों और एडिटिव के इस्तेमाल पर रोक होनी चाहिए।
  8. खाना बनाने के लिए आयोडीन युक्त नमक का इस्तेमाल होना चाहिए।
  9. खाने में डालने के लिए स्थानीय तौर पर उपलब्ध सस्ती गिरियों (बिना नमक लगी) फलों के बीजों का इस्तेमाल किया जा सकता है। (मूंगफली, खरबूजे, तरबूज के बीज, अखरोट आदि)
  10. अगर किसी क्षेत्र विशेष की ऐसी मांग हो तो आहार में फालिक एसिड और लौह तत्वों को शामिल किया जा सकता है।